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के टुकड़े हैं, हीरे नहीं। तात्पर्य यह है कि जब तक वस्तु की ठीक-ठीक जानकारी नहीं होती, तब तक वह अज्ञानी है।
पं. बनारसी दास जी के उपर्युक्त दोहे स स्पष्ट हो जाता है कि जब जीव को 'स्व' अर्थात् अपनी आत्मा तथा 'पर' अर्थात् अपनी आत्मा के अलावा समस्त अन्य आत्माएं एवं अन्य द्रव्य सब अलग-अलग प्रतीत होन लगते हैं, तब जीवों की क्या स्थिति बनती है। वह संसार-शरीर व भोगों से स्वतः ही उदासीन हो जाता है तथा अपने सच्च सुख का अनुभव करने लगता है। इसका नाम आत्मज्ञान है, भेद विज्ञान है और स्व-पर भेदज्ञान है। इस आत्मज्ञान द्वारा ही संसारी जीव मोक्ष को प्राप्त होता है | संसार के दुःखों से छूटता है, मुक्त होता है।
जिस प्रकार हंस के मुख का स्पर्श होने से दूध और पानी पृथक-पृथक हो जाते हैं, उसी प्रकार सम्यग्दष्टि जीवों की सदष्टि में स्वभावतः जीव, कर्म और शरीर भिन्न-भिन्न भासते हैं। जब शुद्ध चैतन्य के अनुभव का अभ्यास होता है, तब अपना अचल आत्मद्रव्य प्रतिभासित होता है, उसका किसी दूसरे से मिलाप नहीं दिखता। पूर्वबद्ध कर्म उदय में आय हुए दिखते हैं, परन्तु अहंबुद्धि के अभाव में उनका कर्ता नहीं होता, मात्र दर्शक रहता है | दुःख का मूल तो 'पर' को 'स्व' मानना है | यह सब कार्य मोह ही कराता है। यह बात निम्न दृष्टान्त से भी स्पष्ट हो जाती है -
एक व्यक्ति ने जंगल में जाते हुए एक हाथी को एक बच्चे को सूंड में उठाकर मारते देखा | यह देखकर वह व्यक्ति चिल्ला उठाअरे! मेरा बच्चा मारा गया और बेहोश हा जाता है। परन्तु वह बच्चा उसका नहीं था। उसके सामन उसका बच्चा लाया गया और उसको जगाया। उसे देखते ही वह होश में आ गया। यहाँ उस व्यक्ति को
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