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अयमात्मा स्वभावन, देहे तिष्ठति निर्मलः ।।
जिस प्रकार कमल में जल सर्वदा भिन्न रहता है, उसी प्रकार आत्मा भी स्वभावतः शरीर से भिन्न रहती हुई, शरीर में रहती है।
नरभव पाकर सम्यग्ज्ञान प्राप्त करो, एक मात्र सार वस्तु आत्मतत्त्व को पहिचानो, संसार के समस्त पदार्थों से मोह ममत्व को हटाओ। ज्ञानदर्शन मय आत्म तत्त्व की उपलब्धि का यही अवसर है, उसे ऐसा उत्तम साधन पाकर प्राप्त करना चाहिए ।
जगत् में जितने जीव हैं, सभी सुखी होने का प्रयत्न करते हैं, पर इस जीव ने आज तक लेशमात्र भी वास्तविक सुख प्राप्त न किया। जिन स्वप्नों को इसने सुख माना, वे सांसारिक हैं, क्षणिक हैं। उन सुखों में, दुःखों का आव्हान है और वे सुख अशान्ति एवं आकुलता बढ़ाने वाले हैं । आकुलतामय ही उनका स्वरूप है । इस संसार में भ्रमण करते हुये जीव को आज तक सुख क्यों नहीं मिला? इसका एकमात्र कारण सम्यग्ज्ञान का अभाव है । उस दुःखी जीव पर गुरु ने दया करके सुख पाने के साधन भी बताये, पर मोह - मदिरा से मूर्छित जीव ने कोई ध्यान न दिया । सुखी होने का उपाय यही है कि हमारे ज्ञान में या समझने में यह आ जाय कि संसार के समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वरूप से स्वयं स्वतन्त्र हैं, और हैं स्वयं में स्वतः पूर्ण । मैं चैतन्य चिन्मात्र ज्ञान-दर्शन ही जिसका स्वभाव है ऐसी आत्मा, स्वयं मं स्वतंत्र हूँ | मेरी एक निजी सत्ता है । जैस में इन पदार्थों से भिन्न और अपने स्वरूप से अभिन्न हूँ | वैसे ही ये अन्य पदार्थ जो मुझ से भिन्न हैं, परन्तु वे स्वयं अपने स्वरूप में अभिन्न हैं । मेरे न ये हैं और न मैं इनका हूँ। अरे! इनका मेरा सम्बन्ध ही क्या? मैं कहाँ चेतन, अनन्त गुणों का भण्डार और ये पदार्थ अचेतन और जड़ | मैं स्वतः स्वयं में प्रतिसमय परिणमन करता रहता हूँ । मेरे परिणमन में
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