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उपदेश से, अपने आत्म पुरुषार्थ के द्वारा उस भूले हुए आत्मज्ञान को स्मरण में लाना है । एक भजन में आता है कि
अपनी सुध भूल आप आप दुःख उठायो । ज्यों शुक नभ चाल बिसरि, नलनी लटकायो ।।
तोते को पकड़ने वाला बहेलिया एक रस्सी को उमेठकर उसमें लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े बाँध देता है और उस रस्सी को पेड़ के सहारे बाँध देता है । जैसे ही ताता आकर उस रस्सी में फँसे लकडी के टुकड़े के उपर बैठता है, वह लकड़ी तोते के वजन के कारण घूम जाती है। लकड़ी के घूमते ही तोता घबराकर उसे अपने पैरों से जोर से पकड़ लेता है और उल्टा उसी लकड़ी पर लटक जाता है । लकड़ी पर लटका तोता सोचता है कि लकड़ी छोड़ दूंगा तो नीचे गिरकर मर जाऊंगा । वह भूल जाता है कि लकड़ी को छोड़कर यदि वह चाहे तो अपने पंखों के सहारे आकाश में उड़ सकता है, लेकिन वह अपनी आकाश में उड़ने की चाल को भूलकर उसी लकड़ी पर लटकता रहता है और दुःखी होता रहता है। यही दशा हमारी है । हम भी अपनी सुध भूलकर, अपने आत्म स्वरूप को भूलकर, इस संसार के बंधन में पड़कर दुःख उठाते रहते हैं ।
निर्दोष रूप से अपने आत्म कल्याण की दृष्टि से जिनवाणी का पठन-पाठन करना स्वाध्याय है । हमें स्व-पर प्रकाशक आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिये | जिसके द्वारा अपना और प्राणीमात्र का कल्याण हो सके। हम संसार से पार हो सकें। एक पण्डित जी बनारस से पढ़-लिखकर अपने घर लौट रहे थे। रास्ते में नदी पार करना पड़ती थी । सो जब चलते-चलते नदी के किनारे पहुँचे तो नाव में बैठकर नदी पार करने लगे । नाव में बैठे-बैठे पंडित जी ने मल्लाह से पूछा- कुछ संस्कृत वगैरह पढ़े हो । मल्लाह ने इन्कार कर दिया तो
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