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जीव तो पार्श्वनाथ तीर्थंकर हो गया, किन्तु कमठ के जीव ने दश भव तक, क्रोध की आग में जलत हुये मरुभूति के जीव को सताया । अन्त में भगवान पार्श्वनाथ की पर्याय में भी उन पर भयंकर उपसर्ग किया । क्रोध के कारण कमठ ने तिर्यंच आदि गतियों में बहुत दुःख भोगे
और मरुभूति क्षमा के प्रभाव से कमठ क उपसर्गों को जीतकर भगवान पार्श्वनाथ बन गये | यह सब क्षमाधर्म की महिमा है । क्षमावान् व्यक्ति कभी किसी को अपना शत्रु नहीं मानता।
जिस समय श्रीराम ने रावण पर चढाई की, तो उस समय भी उनके मन में रावण क प्रति शत्रुता का भाव नहीं था। तभी तो वे बार-बार कहते रहे कि, हे रावण! मैं तेरी लंका का राज्य नहीं चाहता, लंका का वैभव नहीं चाहता | मैं तो केवल यही चाहता हूँ कि तू मेरी सीता को मुझे वापिस दे-दे | यह है आदर्श पुरुषों की उत्तम क्षमा।
जब रावण बहुरूपणी विद्या सिद्ध कर रहा था तो श्रीराम के मित्रों ने कहा कि अब मौका है रावण को बांधकर लाने का, उसकी पूजा में विध्न डालने का | तब राम ने कहा-'यह क्षत्रियों का कार्य नहीं है कि कोई धर्म करे और हम उसमें विध्न डालें ।' यह थी श्रीराम की क्षमा ।
हम महापुरुषों स शिक्षा लें और क्रोध को छोड़कर सदा क्षमाधर्म को धारण करें | हमें न तो स्वयं क्रोध करना चाहिये और न ही दूसरों को क्रोध करवाने में निमित्त बनना चाहिये । केवल क्रोध करना ही कषाय नहीं है, दूसरों को क्रोध करवाना भी कषाय है।
एक घर में सास बहू की आपस में बनती नहीं थी। सास हमशा बोलती रहती, चिल्लाती रहती। सब कहते कि यह सास महा निर्दयी
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