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एक दिन मेरा भाई उधर से निकला कि अचानक मैंने उसे देख लिया और जोर से आवाज देकर बुलाया । किन्तु वह मेरी इस दुर्दशा में जल्दी पहचान भी न सका । जब उसने मेरे मुख से सारा हाल सुना, तब वह रो पड़ा । पुनः उसने मुझे धैर्य बंधाया और उसी क्षण उसने राजा के पास जाकर मेरा परिचय बताकर उस पापी रंगरेज से मेरा उद्धार किया । वहाँ से लाकर मेरे भाई ने पुनः मेरे पतिदेव को समझा बुझाकर मुझे यहाँ पहुँचा दिया । इस समय मेर शरीर का प्रायः सारा खून निकल चुका था, इसलिये मुझे लकवे की बीमारी हो गई । तब वैद्य ने यह लक्षपाक तेल बनाकर मुझे बचाया ।
इसके बाद एक निर्ग्रन्थ मुनिराज से धर्मोपदेश सुनकर मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली कि अब मैं किसी पर भी क्रोध नहीं करूँगी । अतः अब मैं बहुत ही शान्त रहती हूँ, जिससे मुझे स्वयं बहुत सुख का अनुभव होता है ।
सेठ जिनदत्त इस सच्ची घटना को सुनकर बहुत प्रभावित हुये और उस ब्राह्मणी की बहुत प्रशंसा करते हुये अपने घर आकर मुनिराज की परिचर्या में लग गये ।
क्रोध का फल इस भव में तो बुरा है ही, परभव में भी बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण करानेवाला है ।
क्रोध के समान अन्य कोई शत्रु नहीं । कमठ ने अपने भाई मरुभूति की स्त्री से व्यभिचार किया । तब राजा ने उसे दण्ड देकर देश से निकाल दिया। वह तापसी आश्रम में पत्थर की शिला को हथेली पर रखकर ऊँची करके तपश्चरण कर रहा था । मरुभूति भाई के मोह से उसे बुलाने गया, किन्तु उस कमठ ने क्रोध से वह शिला भाई पर पटक दी, जिससे वह मर गया । कालान्तर में मरुभूति का
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