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सोमशर्मा ब्राह्मण ने इस बात की प्रतिज्ञा की कि मैं इन्हें तू कहकर नहीं पुकारूँगा | तब पिताजी की चिंता मिटी और मेरा विवाह सम्पन्न हो गया। मैं यहाँ अपने ससुराल आ गई। मैं इस घर में बहुत दिनों तक सुखपूर्वक रही।
एक दिन की घटना है। मेरे पतिदेव रात्रि में देर तक नाटक देखते रह और घर बहुत देर से आये | दरवाजा खोलो-खोलो पुकारने लगे | उस समय मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था, इसलिये मैंने दरवाजा नहीं खोला। पतिदेव जब दरवाजा खट-खटात और पुकारते-पुकारते थक गये, तब उन्हें भी गुस्सा आ गया और बोले - 'अरे; तूं सुनती क्यों नहीं है? मैं इनती देर से बाहर खड़ा चिल्ला रहा हूँ |' बस, पति के मुख से तूं निकलते ही मैं आपे से बाहर हो गयी। उस समय मैं क्रोध से अंधी हो गयी और दरवाजा खोलकर घर से बाहर भाग निकली | उस समय मुझे कुछ न सूझा कि मैं कहाँ जा रही
___मैं दौड़ते हुये शहर के बाहर जंगल की ओर निकल गयी । इसी बीच जंगल में चोरों ने मुझे देख लिया। उन्होंने मरे सब कीमती गहने-जेवर उतार लिये और विजयसेन भील को सौंप दिया | उस भील ने मुझे सुन्दर देखकर मेरा शील भंग करना चाहा, किन्तु मेरी दृढ़ता के प्रभाव से किसी दिव्य स्त्री ने आकर मेर शील की रक्षा की। तब उस भील ने डरकर मुझे एक सेठ का सोंप दिया। सेठ ने भी मेरा शील भंग करना चाहा, पर उस समय भी दैवी-शक्ति ने मेरी रक्षा की। तत्पश्चात् उस सेठ ने मुझे एक रंगरज मनुष्य क हाथ सांप दिया | वह दुष्ट मनुष्य मेर शरीर पर बहुत सी जौंकें लगा-लगाकर मेरा राज-रोज बहुत-सा खून निकाल लेता था और फिर उसमें कंबल रंगा करता था | इस अपार दुःख का भोगते हुये मेरे कितने ही दिन निकल गये थे।
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