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का वर्णण करते हुये पंडित दौलतराम जी ने छहढाला ग्रंथ में ज्ञान की महिमा बताते हुए लिखा है
सम्यक श्रद्धा धारि पुनि, से वहु सम्यग्ज्ञान |
स्व-पर अर्थ बहू धर्म जुत, जो प्रगटावन भान || अत्यन्त महिमापूर्वक सम्यग्दर्शन को शीघ्र धारण करक सम्यग्ज्ञान का भी हे भव्य जीव! सेवन करो, उसकी आराधना करो | कैसा है सम्यग्ज्ञान? जा अनन्त धर्म वाले स्व-पर-पदार्थों का प्रकाशन करने के लिए सूर्य के समान है | सम्यग्ज्ञान स्व-पर सर्व पदार्थों का सच्चा स्वरूप जान जाता है। अतः हे भव्य जीव! तुम सम्यक्त्व के साथ सम्यग्ज्ञान की भी आराधना करो।
सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधौ । लक्षण श्रद्धा जानि दुहू में भेद अबाधौ ।। सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई।
युगपत् होते हू, प्रकाश दीपकतै होई ।। सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है, एक साथ ही दोनों प्रकट होते हैं। उनमें समय भेद नहीं है, तथापि उन दोनों की भिन्न-भिन्न आराधना कही गई है, क्योंकि लक्षण भेद से दानों में भद है - इसमे कोई बाधा नहीं है। सम्यग्दर्शन का लक्षण तो शुद्धात्मा की श्रद्धा है और सम्यग्ज्ञान का लक्षण स्व-पर को प्रकाशित करने वाला ज्ञान है | वहाँ सम्यक श्रद्धा तो कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है। दोनों साथ होने पर भी दीपक और प्रकाश की भांति उनमें कारण कार्यपना कहा गया है | सम्यक श्रद्धा और सम्यग्ज्ञान की आराधना एक साथ ही प्रारम्भ होती है, किन्तु पूर्णता एक साथ नहीं हाती | क्षायिक सम्यक्त्व होने पर श्रद्धा की आराधना तो पूर्ण हो गई, किन्तु ज्ञान की आराधना तो केवलज्ञान हाने पर ही पूर्ण होती
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