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इसी में तृप्त हो | इसी से तुझ उत्तम सुख प्राप्त होगा |
बिना ज्ञान के हम अपने जीवन का विकास नहीं कर सकते । यदि हम अपने मन में पवित्रता लाना चाहते हैं, अपना आत्मकल्याण करना चाहते हैं तो सदा जिनवाणी का स्वाध्याय करें और वीतरागी मुनिराजों की संगति में रहें।
आचार्य पायसागर बड़े तपस्वी व प्रभावी महाराज हुये हैं। वे कहा करते थे-मै ता पापसागर था, शान्ति सागर महाराज ने मुझे पापसागर से पायसागर बना दिया। उनके बारे में कहा गया है, वे सारे व्यसनों में पारंगत थे, एक दिन वे अचानक शांतिसागर जी महाराज के पास पहुँच गये और उन पर अपना ज्ञान थोपने का प्रयास करने लगे | बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, महाराज! आप मुनि किस लिये बने हो । महाराज ने कहा-मुनि बनने से मोक्ष मिलता है, आज तो मोक्ष नहीं मिलता, चौथे काल में मिलता है। वे बोले-महाराज, जब माक्ष चौथे काल में मिलता है, तो अभी मुनि बनने से क्या फायदा? महाराज ने सोचा इसे ज्ञान की अपेक्षा अनुभव के ज्ञान से समझायें तो ठीक होगा | उन्होनें उससे कहा-यह बताओ कि सामने जो पेड़ खड़ा है, वह कौन-सा पेड़ है? उसने कहा-आम का | महाराज बोले-जाओ उसमें से दो-चार आम तोड़ के ले आओ। उसने कहा, महाराज! भादों के महीने में आम कहाँ से मिलेंगे? आम अभी नहीं मिल सकते। तो आम का पेड़ क्यों कह रहे हा? महाराज! इसलिये कि इसमें आम अभी नहीं लगे, लेकिन आगे लेगंग | महाराज ने कहा-"वही तो हम कह रहे हैं, मोक्ष अभी नहीं मिलता, आगे मिलगा। इसमें क्या बुराई है? बस इतना सुनना था कि उनका हृदय परिवर्तन हा गया । उनका अभिमान चूर-चूर हो गया। पूरा-का-पूरा जीवन बदल गया | वे आगे चलकर आचार्य पायसागर बने | सम्यग्ज्ञान
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