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भ्राम्यन्त्य हो न त्वमिति स्मरन्ति पर्यायनामानि तवैव तानि ।
मणि कहो मंत्र कहो, औषधि कहो, रसायन कहो, ये सब हे प्रभु तुम्हारे पर्यायवाची शब्द हैं, लोग व्यर्थ ही इनके लिये यत्र-तत्र भटकते हैं । प्रभु भक्ति ही यह सब कुछ है । वहाँ प्रभु की अटल भक्ति के प्रभाव से उस बच्चे का विष दूर हो जाता है और वह उठकर खड़ा हो जाता है ।
इस स्तवन अन्त में धनंजय सेठ ने कहा - इतिस्तुर्ति देव विधाय दैन्याद वर न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छाया तरूं संश्रयतः स्वतः स्यात्कध्छा यदा याचितयात्मलाभः । हे प्रभो ! मैं आपकी स्तुति करके आपसे कुछ माँगता नहीं हूँ । आप तो वीतराग सर्वज्ञ हो, अपने ही आनन्दरस में लीन रहा करते हो। हम आपसे क्या माँगें ? एक बात और भी है कि छाया वाले पेड़ के नीचे बैठकर उस पेड़ से छाया क्या माँगना? हे प्रभो ! मैं आपकी भक्तिरूपी छाया मैं बैठा हूँ, तो मैं क्यों अपनी नियत खराब करूँ, क्यों व्यर्थ के विकल्प करके संताप उत्पन्न करूँ? मैं तो आपकी इस शान्त भक्ति की ही छाया में बैठकर भक्ति में लीन हो रहा हूँ, जिससे मुझे शान्ति की शीतल छाया स्वयं ही प्राप्त हो रही है। जो भक्ति करते-करते प्रभु के स्वरूप डूब जाता है, उसके समस्त संकट अपने आप दूर हो जाते हैं ।
हम आप प्रभु मूर्ति के दर्शन करते हैं तो जिनकी यह मूर्ति है, जिनकी इस मूर्ति में स्थापना की है, उन प्रभु के स्वरूप में दृष्टि दें । प्रभु वीतराग हैं, इनको किसी भी वस्तु के प्रति मोह राग-द्वेष नहीं है । पूर्ण शुद्ध निष्कलंक ज्ञानपुंज हो गये हैं । प्रभु आकिंचन्य हैं । हमें भगवान के दर्शन करते हुये में प्रेरणा लेना चाहिए कि हे नाथ! मैं भी जब आपकी तरह शरीरादि से न्यारा अपने स्वरूप में पूर्ण विकास वाला होऊँ, तब कृतार्थ होऊँगा । इससे पहले तो मैं दुःखी ही हूँ । हे
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