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नाथ! एसा समय कब आयेगा जब मैं इस क्लेशकारी शरीर से सदा के लिय मुक्त हो जाऊँगा।
यदि शरीर और आत्मा का भेदज्ञान हो जाय, अपने स्वरूप की दृष्टि जग जाये, तो समझो कि धार्मिक क्रियाओं की जितनी बिन्दियाँ हम धरेंगे उतना ही उनका महत्त्व बढ़ जायगा और एक ज्ञान स्वभाव की दृष्टि न बने, तो बाहरी क्रियाओं की या अन्य-अन्य तपश्चरण आदि की कितनी ही बिन्दियाँ धरते जायें, पर उन सारी बिन्दुओं के जोड में एक भी संख्या नहीं आ पायेगी। और यदि एक (1) का अंक है, उसमें एक बिन्दी (०) धर दी गई तो दस गुनी कीमत हो गई, बिन्दी और धर दी गई ता 100 गुनी कीमत हो गई। यों जितनी भी बिन्दियाँ उसके आगे रखते जायेंगे, उतनी ही अधिक कीमत उसकी बढ़ती जायेगी। तो ऐसे ही यहाँ समझो, यदि अपना आत्मस्वरूप दृष्टि में है, तो आप जो कुछ भी क्रियायें करेंगे वे सब मोक्षमार्ग में वृद्धि करायेंगी, और एक यही बात नहीं है तो फिर चाहे कितनी ही क्रियायें कर ली जायें, मोक्ष मार्ग में बढ़ने क लिये, पर प्रगति नहीं की जा सकती। इष्टोपदेश ग्रंथ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है
जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्यः इत्यसौ तत्त्वसंग्रहः ।
यदन्यदुच्यते किंचित् सोऽस्तु तस्यै व विस्तरः ।। जीव अलग है, पुद्गल अलग है। जीव जुदा, पुदगल जुदा, यही तत्त्व का सार है और शेष सब इसी का विस्तार है। शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है, मात्र इतनी सी बात सीख ली तो सब सीख लिया।
सम्यग्ज्ञान का बड़ा चमत्कार है | अज्ञानी जीव दुर्धर तप करके करोड़ों जन्मों में जितने कर्मा को झड़ाता है, उतने कर्म यह ज्ञानी अपने ज्ञान के बल से, ज्ञानमग्नता के बल से, क्षण मात्र में नष्ट कर सकता है | सम्यकचारित्र, सम्यग्ज्ञान के बिना नहीं होता। और इस
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