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सारी रात उसको बहुत-बहुत खींचते रह | परन्तु जब प्रातः काल हुआ तो क्या देखा कि वह तो ज्यों का त्यों खड़ा है। इसी प्रकार जब तक उपयोग की डोर मोह के खूटे से बंधी है, तब तक धार्मिक क्रियाओं को करने से वीतरागता की प्राप्ति नहीं हा सकती।
भैया! बेतुकी मनमानी पद्धति से तो बहुत सी महिलायें एक साथ चार, पाँच धर्मसाधना के काम कर लेती हैं | बच्चे को भी खिला रही हैं, पाठ भी करती जा रही हैं, पूजा भी कर लेती हैं, माला भी जपती जाती हैं, स्वाध्याय भी सुनती जाती हैं। यों अनेक काम कर लेती हैं, पर आप बताओ क्या वहाँ कुछ भी धर्म किया गया? गृहस्थ भी चलते हैं मन्दिर दर्शन को, तो रास्ते में विचारते हैं कि फला रास्ते से चलें, बाजार में सब्जी खरीद लें, फिर मंदिर में दर्शन कर लेंग अथवा अमुक वकील साहब मिल जायेंगे ता अपना काम कर लेंगे | यों अनेक बातें मन में रक्खे हुये मंदिर में ध्यान कर रहे हों तो वह कैसा ध्यान रहा? एक पंडित जी ने बताया था कि ऐसे लोगों की यों स्तुति होती है। एक श्लोक है-त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव | सामने भगवान की मूर्ति है, पीछे बाजार से खरीदकर लाया हुआ सामान रखा है। अब वह सामान की ओर देखकर कहता है-त्वमेव माता, फिर भगवान की ओर देखकर कहता है-च पिता त्वमेव, फिर सामान की ओर देख कर कहता है-त्वमव बंधुश्च, फिर भगवान की मूर्ति की ओर देखकर कहता है- सखा त्वमेव | यह हालत होती है। जो लोग लौकिक वस्तुओं की आकांक्षा स भगवान की पूजा आदि करते हैं, उनकी पूजा ऐसी ही होती है। पूजा में, भक्ति में निर्लोभ वृत्ति और मन की एकाग्रता होनी चाहिये । जो इतना साहस बनाकर बैठ सकता है कि पूजा क समय मुझे धनंजय कवि के समान काई दूसरा विकल्प मन में नहीं लाना है, वही प्रभु
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