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अपने आप को देख लीजिये यदि कषायों में, विषयों में फर्क आया हो तब तो समझो कि हमने भगवान की भक्ति की है । यदि फर्क नहीं आता है, तो खोज करना चाहिये कि इसमें कौन-सी त्रुटि रह गयी है? जिस एक त्रुटि के बिना सारा यंत्र चला देने पर भी गाड़ी नहीं चलती है, वह कौन-सी त्रुटि है? वह त्रुटि है, मोह नहीं मिटा है । अपने आपको सबसे न्यारा, ज्ञानमात्र नहीं जान पाया। यह मूर्त कल्पनायें, ये रागादि विभाव, इन्हीं रूप अपने को माना और लौकिक पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा से भगवान की भक्ति आदि धार्मिक क्रियाओं को किया है।
मोही जीव अपनी पर्याय बुद्धि से रंच भी हटना नहीं चाहता । जब तक शरीर को ही मैं ( आत्मा ) समझ रखा है, तब तक धर्म के नाम पर कितनी भी क्रियायें कर लो पर उनसे रागादि विभाव दूर होने वाले नही हैं। जैसे कोई पुरुष रात्रि में किसी समुद्र या नदी में सैर करने के लिये गया, सो रात्रि भर नाव को खूब खया, बड़ा खुश भी हुआ, मगर जब प्रातःकाल हुआ तो क्या देखा कि नाव तो ज्यों की त्यों खड़ी | वहाँ बात क्या हुई कि वह नाव खूँटे से बँधी ही रह गई । नाव को रस्सी के द्वारा खूंटे से बाँध दिया करते हैं । तो उस नाव को खूँटे से खोलना भूल गये और काम बहुत किया, पर उससे लाभ कुछ नहीं हुआ । सुनते हैं कि कोई एक ऐसी घटना कभी हुई थी कि बहेलना ग्राम में जो एक किला है, उसमें कोई ऐसी खास बात कुछ लोगों को दिखी कि उन्होंने उस किले को वहाँ से उठाकर अपने गाँव ले जाने का विचार किया । सो उन लोगों ने क्या किया कि उस किले के चारों ओर रस्से डाल दिये और उसे खींचना शुरू किया, जब रात्रि को चंद्रमा थोड़ा खिसककर इधर से उधर हुआ तब उनकी समझ में आया कि यह किला अब काफी खिसक आया है, सो
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