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उन्हें अपनी शान्ति के अतिरिक्त दूसरी वस्तु नहीं रुचती। ज्ञानी शुभ क्रियाओं को करते हुये वीतरागता का लक्ष्य रखता है। जा व्यक्ति धार्मिक क्रियाओं को करते हुये आत्मा में चित्त नहीं लगाता और लौकिक वस्तुओं की आकांक्षा करता है, वह ऐसे जानना कि जैसे किसी ने कणरहित भूसे का ढेर इक्ट्ठा कर लिया हो। उसकी वे क्रियायें वीतरागता की कारण भी नही हैं।
जिन प्रभु की हम पूजा करते हैं वे वीतराग सर्वज्ञ हैं। उन्हें किसी के प्रति राग-द्वेष, मोह नहीं है | उसी स्वरूप का प्राप्त करने की हम आपमें सामर्थ्य है, क्योंकि स्वरूप वही का वही है, जो प्रभु का है। आचार्य समझाते हैं अपने स्वरूप को समझने के लिय ही ता हम आप मन्दिर में आत हैं, पूजन, बंदन से उनकी महिमा गाते हैं, लेकिन तुझ उस स्वरूप से प्यार नहीं है | यदि धन, वैभव से ही प्रीति है तो काहे की भक्ति है, सब केवल दिखावा है। किसको रिझाने के लिये तू ऐसा दिखावा करता है? क्या अन्य दर्शक पुरुषों का रिझान के लिये तू पूजन का दिखावा करता है? या प्रभु के गुणों का स्मरण करने के लिये, अपने आत्म-स्वरूप को जानने के लिय पूजन करता है, क्या कर रहा है? साच | यह संकल्प बनाले कि मुझे किसी अन्य पुरुष को कुछ दिखाने से लाभ नहीं है । मैं अपने बारे में किसी मनुष्य को कुछ अपना बड़प्पन दिखा दूं, महत्त्व जता दूं, इससे कोई लाभ नहीं है। यही कारण है कि वर्षा भक्ति करते हुये हों जायें, अनेक झांझ मंजीर भी फूट जायं, कितने भी बड़े-बड़े विधान, उत्सव, समाराह भी धर्म के नामपर कर डाले हा, परंतु बहुत समय गुजरने के बाद भी क्रोध में कमी नहीं आयी, घमंड में कमी नहीं आयी, मायाचारी में कमी नहीं आयी और लोभ का रंग तो कहो पहल से भी अधिक बढ़ा हुआ हो।
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