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बचारा दौड़ते-दौड़ते झुलस रहा है। और लंगड़ा देखते-देखते झुलस रहा है, क्योंकि वह चल नहीं पा रहा है | चारित्र विहीन ज्ञान, विषय-कषाय की अग्नि में झुलसने से नहीं बचा सकता। यदि ज्ञान
और चारित्र दोनों हो जायें, तो जीव विषय-कषाय की अग्नि में झुलसने से बच सकता है।
सम्यग्ज्ञान के अभाव में यह संसारी प्राणी अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण करता हुआ, दुःख उठा रहा है | बहिरात्मा जीव, शरीरादि परद्रव्यों में आत्मबुद्धि होने के कारण, परपदार्थों का अपना मानता है और इनमें ही सुख ढूंढता रहता है । जैसे, मरे हुये जीव में मुर्दे को श्मशान में जलाने के बाद, उस राख में कोई जीव को ढूंढ रहा है। एसे महामूखों का सुख मिलेगा क्या? कभी नहीं मिलेगा | सुख प्राप्त करन का उपाय बताते हुये पंडित दौलतराम जी न लिखा है
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजे |
परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजे ।। बहिरातमता को हेय जानकर छोड़ देना चाहिये, क्योकिं बहिरात्मा जीव, परपदार्थों में ममत्व बुद्धि रखता है, इसलिय उसे बेहोशी का नशा-जाल छाया रहता है। पर जैसे ही परपदार्थों से अपनत्व बुद्धि दूर होती है, उसका आनन्द की लहर आने लगती है।
अन्तरात्मा जीव को आत्मा और आत्मा से भिन्न परद्रव्यों का ज्ञान हो जाता है। अर्थात् मैं शरीरादि से भिन्न अखण्ड अविनाशी चैतन्य स्वरूपी आत्मा हूँ, ये शरीरादि मेरे नहीं हैं, न ही मैं इनका हूँ, तब उसे पदद्रव्यों से भिन्न, निज आत्मा की रुचि पैदा हो जाती है और संसार शरीर व भोगों से अरुचि पैदा हो जाती है। वह हमेशा आत्मसन्मुख रहन का पुरुषार्थ किया करता है। जब तक इस जीव को अपने आत्मस्वरूप का बोध नहीं होता, तब तक ही वह संसार में
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