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करनेवाले व्यक्ति की दृष्टि आत्मतत्त्व की विशुद्धता की तरफ ही रहना चाहिये | अगर भगवान के दर्शन, पूजन आदि भेदविज्ञान की प्राति के लिये किय जाते हैं, तो वे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति क कारण माने जाते हैं। आत्मदर्शन क लिये, जिनदर्शन जरूरी हैं | आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने 'प्रवचनसार' ग्रंथ में लिखा है
जा जाणादि अरहतं, दब्बत गुणत्त पज्जयत्तेहिं ।
सो जाणादि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्य लयं ।। जा अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से यथार्थ जानता है, वह अपनी शुद्ध आत्मा को जानता है और उसका दर्शनमोह नियम स क्षय को प्राप्त होता है। दर्शन मोह का क्षय होत ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है और धारण किया हुआ चारित्र भी सम्यक्पने को प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान के अभाव में यदि कोई चारित्र धारण करता है, तो वह सम्यक नहीं कहलाता| राजवार्तिक ग्रंथ में आचार्य महाराज ने लिखा है
हतंज्ञानं क्रियाहीनं, हतं चाज्ञनिनाँ क्रिया।
धावन किलान्धको दग्धः, पश्यन्नपि च पड्गुलः ।। हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, जा क्रिया से हीन ज्ञान है, हतं यानी नष्ट होता है। हतं च अज्ञानिनो क्रिया और अज्ञानी की क्रिया अर्थात् ज्ञान रहित चारित्र, हतं यानी नष्ट होता है। जंगल में आग लग गई | जो अंधा पुरुष है, वा दौड़ते-दौड़ते झुलस रहा है, क्योंकि उसे मालूम नहीं है कि किस ओर मार्ग है? अन्ध पुरुष के पैर हैं, पर आँखं नहीं हैं। चारित्र है, पर कैसे पालन करना चाहिये? चारित्र का उद्देश्य क्या है? उद्देश्य विहीन चारित्र मोक्ष प्राप्त कराने वाला नहीं होता।
अंधा दौड़ते-दौड़ते झुलस रहा है और लंगड़ा देखते-देखते झुलस रहा है। जो ज्ञान चरित्र विहीन है, वो लंगड़ा है। अंधा तो
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