________________
सुख ढूंढता हुआ, बहिरात्मा बनकर, भ्रमण करता रहता है। अतः बहिरात्मपना को हय जानकर छोड़ देना चाहिये और अन्तरात्मा बनकर, सदा परमात्मा का ध्यान करना चाहिये, जिससे जीवन में आनन्द प्राप्त हो।
सच्चे देव, शास्त्र गुरु की श्रद्धा- भक्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान का प्रधान कारण है | राग-द्वेष क चक्र में फँस हुये जीवों की निवृत्ति का उपाय प्रारम्भ में राग-द्वेष से रहित भगवान की पूजा-भक्ति करना है। भगवान का आलम्बन लिये बिना आज तक तीनलोक में किसी का कल्याण न हुआ और न होगा। तभी तो आचार्यों ने कहा है-ह भव्य जीवो! भगवान की भक्ति से अपने को जोड़ लो, फिर भगवान की अलौकिक शक्ति स्वतः ही प्रकट हो जायेगी। जिनदर्शन से ही निजदर्शन होना संभव है | जा व्यक्ति भगवान की पूजा-भक्ति नहीं करता, उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्राप्त होना असंभव है। भगवान के दर्शन कर अपने शुद्ध स्वरूप का परिचय प्राप्त करने से बढ़कर दुनिया में अन्य कोई सम्पदा नहीं है। बाकी जिसे सम्पदा मानते हैं, तो जब तक जीवित हैं, तब तक बहुत कलंक में लगे हैं और जब मरण हा जायेगा तो सब यहीं पड़ा रह जायेगा और आत्मा को अकेले ही जाना पड़ेगा।
हम यहाँ-वहाँ के लोगों का अनुरंजन छोड़कर, मोह-ममता को त्यागकर, दव-शास्त्र-गुरु में अपनी भक्ति को बढ़ायें और अपना जीवन सफल करें। जैसे एक बालक पिता की अंगुली पकड़कर चलना सीखता है, उसी प्रकार एक गृहस्थ देव-शास्त्र-गुरु रूपी पिता की अंगुली पकड़ कर चलेगा, तभी उसे मोक्षमार्ग मिल सकता है। पंडित दौलतराम जी ने "छहढाला' में लिखा हैदेव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो।
699