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बनता है, कर्मजाल कैसे कटता है, मुक्ति किस तरह होती है? इत्यादि आत्म उपयोगी ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है। संसार की लौकिक विद्यायें जान लेने पर भी जब तक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं होता, तब तक आत्मा का कुछ भी हित नहीं होता, इस कारण आत्मकल्याण करने के लिये सभी का जिनवाणी का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये | जिनवाणी का स्वाध्याय करने से हम मोक्षमार्ग का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। छहढाला ग्रंथ में पंडित श्री दौलतराम जी ने लिखा है
"पर द्रव्य नितें भिन्न आपमें, रुचि सम्यक्त्व भला है | आपरूप को जान पनो सो, सम्यग्ज्ञान कला है ।।" परद्रव्यों से भिन्न अपनी चैतन्य स्वरूपी आत्मा का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन तथा जानना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सुखी होने का उपाय केवल सम्यग्ज्ञान है। क्योंकि अपने चैतन्य स्वरूप को पहचाने बिना शरीर में अपनापन नहीं मिट सकता, शरीर में अपनापन मिटे बिना राग-द्वेष नहीं मिट सकता. और राग-द्वष मिटे बिना यह जीव कभी सुखी नहीं हो सकता। राग-द्वेष की उत्पत्ति का मूल कारण जीव की अनादिकालीन मिथ्या मान्यता है कि "मैं शरीर हूँ।" यह जीव निज में चैतन्य होते हुये, आप ही जानने वाला होते हुये, भी स्वयं को चैतन्य रूप न जानकर, शरीर रूप जान रहा है | शरीर और स्वयं में एकपना देखता है, तो शरीर से सम्बंधित सभी चीजों में इसके अपनापन आ जाता है | शरीर के लिये अनुकूल सामग्री में राग होता है और प्रतिकूल सामग्री में द्वेष | इस प्रकार राग-द्वेष का मूल कारण शरीर को अपना मानना है, कर्म जनित अवस्था में अपनापन मानना है। यह मिथ्या मान्यता तभी मिट सकती है, जब यह जीव अपने को पहचान और जान कि मैं शरीर एवं राग-द्वेष से भिन्न चैतन्य स्वरूपी
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