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आत्मा हूँ|
प्रव्येक संसारी जीव में क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अर्थात् राग-द्वेष पाये जाते हैं। ये राग-द्वेष ही दुःख के कारण हैं | राग-द्वेष की मात्रा और दुःख, इन दोनों में सीधा सम्बन्ध है | जिनके राग-द्वेष ज्यादा हैं, वे अपने आप मे सदा दुःखी हैं, बाहरी सामग्री अनुकूल होने पर भी व महादुःखी हैं। और जिनके इनकी कमी होने लगती है, वे बाहरी अनुकूलताओं के बिना भी सुखी रहते हैं। साधु क पास कुछ भी बाह्य सामग्री न रहते हुये भी वे महासुखी हैं। क्योंकि उनमें राग-द्वेष की कमी हुई। इससे पता चलता है कि जीव अपने राग-द्वेष की वजह से दुःखी है, न कि बाहरी स्थितियों की बजह से | हमने आज तक सुख प्राप्ति के उपाय ता निरंतर किये, परन्तु राग-द्वेष के त्याग का, नाश का उपाय कभी नहीं किया । यदि हम राग-द्वेष के अभाव का पुरुषार्थ करें, ता जितने-जितने अंश में इनका अभाव हो जायेगा, उतने-उतने अंशो में यह आत्मा सुखी हाने लगेगा। वास्तव में राग-द्वेष ही दुःख है, इनका अभाव ही सुख है और इनका सर्वथा अभाव परम सुख है।
राग-द्वेष के अभाव का उपाय धर्ममार्ग है, राग-द्वेष का अभाव जितन अंशों में हो, उतना धर्म है और इसका पूर्णतया अभाव हो जाना ही धर्म की पूर्णता है | जिस किसी व्यक्ति में राग-द्वेष की कुछ कमी हो जाती है, उसे हम भला आदमी कहत हैं, वह गलत कार्य नहीं करता। और जिस व्यक्ति में राग-द्वेष की कमी और ज्यादा हो जाती है, वह साधु कहलाता है | वह स्वयं शान्त रहता है और दूसरों को भी शान्ति प्रदान करता है। उसका जीवन फूल की तरह होता है - जो न केवल स्वयं में सुगन्धित होता है, अपितु दूसरों को भी सुगन्धित कर देता है। और जिस आत्मा में राग-द्वेष का सर्वथा
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