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छोड़ते हैं, त्यों-त्यों हम अपने घर के पास आते हैं । जब हम सब छोड़ देते हैं, तब अपने घर आकर सुख / आनन्द से आराम करते हैं । भैया! उसी प्रकार जब हम पर - पदार्थों से अपना संबंध बिल्कुल छोड़ देते हैं, तब हम अपने आत्मा को प्राप्त करते हैं और उसमें रमण कर आनन्द प्राप्त होता है । स्वाध्याय से ही आत्मा में आनन्द आता है ।
हमें बाह्य विदेश से चलकर, आभ्यान्तर में आना चाहिये । सबसे पहिले, हमें बाह्य वस्तुओं की मूर्च्छा का त्याग करना चाहिये । दूसरे, चेतन परिग्रह का परित्याग । तीसरे, जहाँ हमारा संबंध है ऐसे शरीर से मूर्च्छा का त्याग | चौथे, रागद्वेषादि से विभक्त निज का विचार | पाँचवें, प्राप्त बुद्धि से भिन्न स्वभाव के विचार । सातवें, विशुद्ध ज्ञान की दृष्टि | आठवें, ज्ञानशक्ति की दृष्टि की दृढ़ता। नवें, अपने ही सहज ज्ञानानन्द स्वभाव में लीन होना । इस प्रकार बाह्य से अन्तरग में आना चाहिये । आत्मा का अध्ययन करना निश्चय स्वाध्याय है और ग्रंथों का पढ़ना है व्यवहार स्वाध्याय । क्योंकि ग्रंथों के निमित्त से आत्मा का ज्ञान होता है ।
सम्यग्ज्ञान ही जीव का परम - बान्धव है, उत्कृष्ट धन है, परममित्र | सम्यग्ज्ञान स्वाधीन व अविनाशी धन है । ज्ञान ही परम देवता है । ज्ञान के अभ्यास किये बिना व्यवहार और परमार्थ दोनों ही नहीं सधते । अतः हम सभी को जिनवाणी का पठन-पाठन कर अपना कल्याण करना चाहिये ।
जिस तरह साबुन लगाने से वस्त्र का मैल बाहर आ जाता है और वस्त्र की स्वच्छता प्रगट हो जाती है, इसी तरह शास्त्रों के स्वाध्याय से ज्ञान के परदे हटते चले जाते हैं और ज्ञान की किरणें फैलती चली जाती हैं । आत्मा क्या है, कब से है, कहाँ से आया है, कहाँ जायेगा, संसार में परिभ्रमण क्यों कर रहा है, संसार चक्र कैसे
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