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मनुष्य जन्म पाया है। अब अपनी आत्मा की कुछ सुध करें, दूसरे जीवों के आधीन होकर दूसरों के प्रेम में बँधकर अपनी बरबादी न करें। गृहस्थ धर्म पाया है तो गृहस्थी की व्यवस्था बनायें, पर अन्तरंग से ममता का परिणाम न लावें । अरे पक्षी की तरह पंख पसारकर किसी दिन उड़ जायेंगे, फिर यहाँ हमारा क्या रहेगा? किस चीज के लिये इतना श्रम कर रहे हैं, इतना निदान बना रहे, इतने मंसूबे बना रहे हैं? सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना ही एक प्रधान कर्त्तव्य है | क्यां शेखचिल्लीपन किया जा रहा कि दुनिया मुझे जान जाये, मान जाये । अरे कुछ लोगों के जान जाने से कहीं मेरा उत्थान न हो जायेगा। ये दुनिया के मायामयी जन, अर्थात् इस देह के बन्धन में बँध हुए लोग, जन्म-मरण के संकट सहने वाले लोग, यदि मुझे जान गये कि यह अच्छा है, यह बहुत पढ़ा-लिखा है, सम्पन्न है, कह डालें, तो ये शब्द मेरा कौन - सा भला करने वाले हैं?
कुछ भी
यह समस्त जगत मिथ्यात्वरूपी रोग से पीड़ित है । यहाँ के जो कुछ भी समागम हैं, वे सब मायारूप हैं । आज मिलें हैं, कल न मिलेंगे, नष्ट हो जायेंगे। कभी तो वियोग होगा ही । जिसका समागम हुआ है, उसका नियम से वियोग होगा, चाहे वह सचेतन समागम हो अथवा अचेतन समागम हो । देखो, कहाँ सुख ढूँढते हो, किस जगह सुख है? यह मोह की नींद का एक स्वप्न है । सब कुछ बिखर जायेगा। कोई भी यहाँ न रहेगा । सो कोई ऐसा बुद्धिमानी का काम करलो, जिससे सदा के लिये सुख मिल जाय । यह जीव स्वभाव से आनन्दमय है, इसको रंच भी क्लेश नहीं है । जो वस्तु जैसी है, उसका उसी प्रकार ज्ञान कर लें, स्वरूप भी जैसा है, उसका यथार्थ ज्ञान कर लें, फिर कष्ट का कोई नाम नहीं रहेगा । यथार्थ ज्ञान ही समस्त क्लेशों से छुटकारा देने का उपाय है । सम्यग्ज्ञान के बिना हम
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