________________
आपको कभी सन्तोष नहीं हो सकता |
भैया! राग ता इस जीव पर बहुत बिकट है, अपने आपका आत्मा अपनी सुध में न रहे और बहिर्मुखी दृष्टि बनाकर अत्यन्त भिन्न असार परद्रव्यों को अपना माना करे, ऐसी जो अन्तरंग कलुषता बस गयी है, यह क्या कम विपत्ति है? इस जगत में मोही-मोहियां का यह मेला है, इस कारण एक दूसरे के मोह की करतूत की प्रशंसा की जा रही है और इसी कारण अपनी गलती विदित नहीं हो पाती है | धन, वैभव की वृद्धि में, यश प्रष्तिठा के बढ़ावे में, और भी नाना व्यामाह में सभी जीव उलझ हुए हैं। इस कारण दूसरों की वृद्धि, सांसारिक समृद्धि निरखकर लोग प्रशंसा करते हैं और ये मोही जीव उस प्रशंसा में आकर अपने आपको भूल जात हैं। आचार्य समझाते हैं-यदि अपना हित चाहते हो, तो इस भ्रम को तज दो कि संसार मे इतने लोगों में हमें सर्व श्रेष्ठ कहलाना है, और इसके लिये हम अपनी संपदा का संचय करना है, इस बुद्धि को त्यागकर रत्नत्रय निधि का संचय करो।
वही धन्य है जो भवि, रत्नत्रय निधि की रक्षा करता । नर से नारायण बनकर, झट शिव मंजिल में पग धरता ।। एक मुनिराज आत्मध्यान में मग्न होकर एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। इतने में एक राजा आया और कहने लगा-अरे आलसी बैठे-बैठे क्या करता है? कुछ काम कर, आराम करना हराम है | कुछ खेती-बाड़ी क्यों नहीं करता? मुनिराज ने अधोमुख करके मन्द मुस्कान के साथ उत्तर दिया-राजन् ! मैं दिन-रात खेती करता हूँ, आलसी नहीं हूँ | उनका उत्तर सुनकर, राजा को आश्चर्य हुआ और कहा कि कहाँ करते हो खेती? तुम्हारा बैल कहाँ है और कौन से बीज हैं? अनाज कहाँ रखा है और सारा सामान कहाँ रखा है?
(686