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अपने आहार क प्रयोजन को भूल गये और उस स्त्री से वार्तालाप करने लगे | इससे दोनों का मन परस्पर आकृष्ट हो गया और शंकर मुनि ने अपना निर्मल चारित्र छोड़ दिया और भ्रष्ट होकर वहीं रहने लगे | अतः अपने शील रत्न की रक्षा के लिय एकान्त में स्त्री सम्पर्क से दूर रहना चाहिये । एकान्त में स्त्रियों के साथ वार्तालाप करने, उनक यहाँ बार-बार आने-जाने तथा व्यापारादि सम्बन्ध रखने से ब्रह्मचर्य व्रत में दूषण उत्पन्न होता है । साधारण मनुष्यों की तो बात दूर रहे, मुनिराज तक को आचार्यों ने आर्यिकाओं के साथ उठने-बैठन, एकान्त में वार्तालाप करने, आर्यिकाओं की वसतिका में प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, आहार आदि को करने का निषेध किया है।
आर्यिका मातायें और मुनिराज जो विषय-भागों से पूर्ण विरक्त हैं, निरन्तर आत्म कल्याण के कार्यों में लगे रहत हैं। उनके लिये भी कहा है कि - आर्यिका मातायें मुनिराज को सात हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से तथा आचार्य को (प्रायश्चित्त आदि लेना होता है इसलिये) पाँच हाथ दूर से नमस्कार कर, प्रश्न, शंका समाधान आदि करे | फिर गृहस्थ तो भोगी है, हर समय भोग-सामग्री के बीच रहता है, उसी की बातें करता है, उसे कितने विवक से रहना चाहिय, इसका विचार वह स्वयं करे | शास्त्रों में ऐसी कई घटनायें मिलती हैं, अचल भी चलित हुए।
राजा सात्यकी ने संसार से विरक्त हो राज्य का परित्याग कर समाधिगुप्त मुनिराज के समीप दीक्षा ल ली। एक बार वे घोर तपश्चरण करते हुये राजगृह नगर क समीप उच्चग्रीवा पर्वत पर स्थित हुये | कुछ आर्यिकाएँ उनकी वन्दना के लिये आयीं । वन्दना करके ज्योंहि वे पर्वत से उतरने लगीं, त्यों हि बहुत तेज वर्षा हाने लगी। सभी आर्यिकायें बिछुड़ गईं। उनमें से एक ज्येष्ठा नाम की
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