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त्याग का व्रत भी महाव्रत के समान हो गया। सभी ओर जय-जय कार होने लगी ।
देखो, एक अणुव्रती गृहस्थ श्रावक में कितनी दृढता है? उसकी आस्था कितनी मजबूत है? उसका आचरण कैसा निर्मल है ? पापों का एक देश त्याग करने वाला भी संसार से पार होने की क्षमता और साहस रखता है । जिसने एक बार अपने स्वभाव की ओर दृष्टि डाल दी, उसकी दृष्टि फिर विकार की ओर आकृष्ट नहीं होती ।
एक युवक विरक्त हो गया ओर घर से जंगल की ओर चल पड़ा । पिता उसके पीछे-पीछे चले जा रहे हैं कि अगर यह मान गया, तो वापिस घर ले आयेंगे। रास्ते में एक सरोवर के किनारे स्त्रियाँ स्नान कर रही थीं। पहले वह युवक निकला तो वे स्त्रियाँ ज्यों-की-त्यों स्नान करती रहीं और जब पीछे से उसके पिता जी निकले, तो सभी अपने वस्त्र संभालने लगीं। पिता चकित होकर रुक गया और उनसे पूछा कि बात क्या है ? अभी-अभी मेरा जवान बेटा यहाँ से निकला था, तब तुम सब पूर्ववत् स्नान करती रहीं और मैं 80 साल का वृद्ध हूँ, फिर मुझे देखकर आप लोग लज्जावश अपने वस्त्र संभालने लगीं । व स्त्रियाँ बोलीं- 'आपका बेटा तो अपने में खोया था, उसे तो पता ही नहीं चला कि यहाँ कोई नहा रहा या नहीं । यदि आप अपनी आँख संभाल लेते तो मुझे अपने कपड़े संभालने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जिनकी दृष्टि पवित्र होती है, उनसे यह व्रत सहज रूप से पल जाता है ।
ऐसे अनेक व्यक्ति हो गये हैं, जिन्होंने अनेकां प्रलोभनों एंव संकटों के बीच भी दृढ़तापूर्वक अपने व्रत का पालन कर अपनी आत्मा का कल्याण किया ।
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