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दिया था, जिसके फल स्वरूप उन्हें अरहन्त पद की प्राप्ति हो गई।
ब्रह्मचर्य के आनन्द की साधारण संसारी जीव कल्पना ही नहीं कर सकत। यह सुख विषयातीत है। विषय-भोगी व्यक्ति अपने विषय-सुख स तुलना करने जायें और सत्य शुद्ध आनन्द की भाँप कर सकें, यह हो ही नहीं सकता। एक बार भील लोगों म चर्चा हुई कि चक्रवर्ती को कितना सुख होगा? तो एक भील बोला-उनके सुख का क्या कहना? उनका सुख तो इतना होगा कि वे ता हमेशा गुड़-ही-गुड़ खाते होंगे । जिसने कभी गुड़ से अच्छा पदार्थ देखा ही नहीं हो, वह इससे अधिक सुख की क्या कल्पना कर सकता है? सच्चे सुख और आनन्द को प्राप्त कराने में ब्रह्मचर्य ही समर्थ है। समस्त देवन्द्र, नागेन्द्र, भवनन्द्र, नरेन्द्र आदि सभी को जो सुख होता है, उस सबको मिला लिया जाय, उससे भी कई गुणा सुख अपने ब्रह्मस्वरूप में रमण करने वाले शुद्धोपयोगियों को होता है। वैसे यह हिसाब भी उस परमार्थ सुख को छू भी नहीं सकता | उनका सुख तो उनकी ही तरह है, अन्य कोई उपमा नहीं है। महाराजों के सुखों का वर्णन करते-करते जब थक जाते हैं तो अन्त में यही कहना पड़ता है कि महाराजों का सुख तो महाराजों क समान ही होता है |
ब्रह्मचर्य व्रत के धारी तो वास्तव में दिगम्बर मुनिराज ही होते हैं। हम इस प्रकार उत्तम ब्रह्मचर्य के धारी नहीं बन सकते ता कोई बात नहीं। श्रावक ब्रह्मचर्य को आंशिक रूप में तो धरण कर ही सकते हैं। आचार्यों ने गृहस्थों का स्वदार-संतोष व्रत को पालन करन का उपदेश दिया है। यदि हम पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं ले सकते, तो ब्रह्मचर्य अणुव्रत (स्वदार-संताष व्रत) को भी ब्रह्मचर्य की कोटि में रखा गया है | अपनी स्त्री का छोड़कर अन्य स्त्रियों को माँ, बहिन अथवा बेटी के समान समझना | गृहस्थी में रहकर भी हम संयम के
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