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साठ वर्ष की उम्र हो गई, फिर भी ज्ञान न जागा । सच तो ये कह देना होगा, जीवन रहा अभागा ।।
यदि शास्त्र पढ़ने के बाद भी, माला जपने के बाद भी, पूजा करन के बाद भी मन के विकार नहीं गये, विषयों की आसक्ति नहीं छूटी, तो शास्त्र पढ़ने, माला जपने और पूजा करने का क्या मतलब हुआ ?
ब्रह्मचर्य की महिमा, वचनातीत है । जो भी एक बार आत्मस्वरूप में रमण कर लेता है, वह कृतकृत्य हो जाता है । मोक्षलक्ष्मी आकर उसके गले में परमानन्द रूपी वरमाला पहना देती है ।
सुकुमाल मुनिराज जब ध्यान में लीन हो गये, आत्मा में रमण करने लगे, तब स्यालनी बच्चे सहित उनके शरीर का भक्षण करती रही और उधर वे आत्मा में लीन होते गये। इस प्रकार आत्मा में लीन होना ही वास्तव में ब्रह्मचर्य है ।
ब्रह्मचर्य में स्थिरता के लिये विषय-भोगों को भाव सहित अन्तरंग से छोड़ देना चाहिये । सीता जी का जीव सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था । जब रामचन्द्र जी मुनि बनकर ध्यान में लीन थे, उस समय सीता जी के मन में विकल्प आया कि राम को केवलज्ञान होने वाला है, राम मोक्ष चले जायेंगे। यदि किसी प्रकार राम थोड़े समय और संसार में रह जायं, तो बाद में हम दोनों एक साथ मोक्ष जायेंगे | वह सीता का जीव प्रतीन्द्र नीचे आया और अनेकों प्रकार से राम को ध्यान से विचलित करने के प्रयत्न किये, नृत्य किये, राग को उत्पन्न करने के लिये अनेकों उपाय किये, पर मुनि रामचन्द्र अपने ध्यान से विचलित नहीं हुये | उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी। वे वास्तव में ब्रह्मचारी थे। उन्होंने भाव से समस्त विषय-भोगों का त्याग कर
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