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न साचा कि नहीं जाऊंगा तो राजा उपद्रव करेगा। अतः चलना ही ठीक है, किन्तु कुछ सोचकर अपना मुहँ काला करके गया। राजा ने पूछा कि आप मुँह काला करके क्यों आये? साधु ने उत्तर दिया-महाराज! इस तरह दरबारों में आने से, अपनी सेवायें इस तरह से कराने से इस भव में काला मुँह नहीं करूंगा, तो हमें परभव में काला मुँह करना पड़ेगा। इसलिये पर भव के काले मुँह से डरकर मैं इसी भव में काला मुँह करके आया हूँ | राजा के मन में यह बात बैठ गई और उसने उस दिन के बाद कभी किसी भी साधु को अपने दरबार में नहीं बुलाया । जो सच्चे महात्मा होते हैं, वे तो इन आरम्भ-परिग्रहों से सदा दूर ही रहते हैं।
परिग्रह तो दुःख का ही कारण है। केवल मोहवश ऐसा मान रखा है कि परिग्रह से बड़ी इज्जत है। अर! कुछ लोगों द्वारा प्रशंसा से शब्द गा दिये गये तो उससे क्या लाभ है? ये काम न देंगे, किन्तु एक आकिंचन्य आत्मतत्त्व की उपासना में वह इज्जत बनेगी कि तीन लोक के अधिपति हो जाओगे। ___ वास्तव में यह परिग्रह की चाह ही दुःख का कारण है । अन्तरंग में जितनी अधिक परिग्रह की चिन्ता होगी, रात्रि में ठीक से नींद भी नहीं आयेगी | यह परिग्रह की चाह ही दुःख का कारण है |
एक बार किसी श्रावक ने साधु जी को एक सोने की चेन वाली घड़ी दे दी। सोने की घड़ी क्या मिल गई, उन्हें एक चिन्ता लग गई कि सोने की घड़ी कोई ले न जाये । अपने शिष्य से बोले – कहीं जाना तो कमरे का ताला लगाकर जाना, जागत हुय सोना | शिष्य परशान हो गया । उसने सोचा हमारे गुरु निष्परिग्रही हैं, दूसरों को उपदेश देते हैं किन्तु इन्हें कौन-सा परिग्रह मिल गया, कौन-सी बेचैनी ने घेर लिया। हमेशा कहने लगे, कमर का ताला लगाकर जाना, जागते हुये साना,
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