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जिसके भोजन किये बिना तुम भोजन भी नहीं करती थीं, दरवाजा खोल दो । लौटता है कि नहीं, तेरे रहते कभी प्रेम से भोजन भी नहीं मिला, तेरे आने के समाचार सुनकर सारी सम्पत्ति जब्त हो जायेगी, जा चला जा । अरे! पागल तो नहीं हो गयी, कोई भूत तो नहीं लगा है । वह कहती है यहाँ बकवास करने की जरूरत नहीं, जहाँ से आये हो वहीं लौट जाओ । वह तो लौट गया, समझ गया, यह राग आग है, सब मतलब के हैं, स्वार्थी हैं, सबको छोड़कर साधु के पास चला गया ।
जरा विचार करो जिनको आप अपना कहते हो, वे सब मतलबी हैं । यह आकिंचन्य धर्म की बात है, इसलिये आप भी मतलबी बन जाओ । अतः जो कुछ अपना लिया है, सब छोड़ दो । सिद्धत्व की उपलब्धि यदि हो सकती है तो इसी आकिंचन्य धर्म के द्वारा हो सकती है, अन्यथा नहीं ।
जीव का स्वभाव मात्र जानना देखना है । जैसे अरहन्त और सिद्ध भगवान प्रति समय सर्व विश्व को मात्र जानते हैं राग या द्वेष नहीं करते। यह उनका सही काम है । तो इसी प्रकार जानते रहना ही अपना काम है | इससे आगे बढ़े और किसी परिग्रह में थोड़ा-सा बोले तो वह विबूच जायेगा । इसका बंधन बंधता चला जायेगा । सर्व परिग्रह से बाहर बने रहना, यही श्रेयस्कर है । जो बाह्य पदार्थां में फँसे हैं, उन्हें अनाकुलता तो कभी मिल ही नहीं सकती, क्योंकि श्रद्धा विपरीत है तो अनाकुलता भट कहाँ से निकले ? जैसे अजायबघर में केवल देखने की इजाजत है, किसी चीज को छुयें उठायें तो वह विबूच जायेगा, फँस जायेगा, दण्ड पायेगा । इसी तरह इस आत्मा का काम तो केवल जानना - देखना है । इससे बढ़कर कोई इसमें बोले में तो वह विबूच जाता है। सुख और शांति उसकी गायब हो जाती है । परसम्पर्क की विवूचन का फल तो महाक्लेश है ।
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