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'परिग्रह चौबीस भद, त्याग करें मुनिराज जी।' चौबीस प्रकार का परिग्रह होता है, दस प्रकार का बाह्य परिग्रह और चौदह प्रकार का अंतरंग परिग्रह । इन 24 प्रकार के परिग्रहों में अगर एक छोटा-सा भी, परमाणु के मात्र भी, परिग्रह हमारे अन्दर रहता है, तो यह आत्मा शाश्वत सुख का प्राप्त नहीं हो पाती है। और परमाणु मात्र भी परिग्रह हमारे पास न रहे, इसलिये आकिंचन्य धर्म कहता है कि कुछ भी आपका नहीं है, जो कुछ भी है, "सब्बे संयाग लक्खणा” सारा का सारा संयोग है, वो नष्ट होने वाला है, साथ तुम्हारे कुछ भी जाने वाला नहीं है। अगर कुछ जायेगा तो वह तुम्हारा दर्शन, ज्ञान, चारित्र। इसक अलावा और कुछ भी जाने वाला नहीं है |
आप अकेल हा इस संसार में, आपका कोई नहीं है। आप कितने भी हाथ-पैर चला लें, कोई आपका साथ देने वाला नहीं हैं | संसार में ऐस जहाँ परिणाम आते हैं, वहाँ पर आकिंचन्य धर्म प्रकट हो जाता है।
दल बल देवी द वता, मात पिता परिवार |
मरतीं बिरियाँ जीव को, कोई न राखन हार || "मंत्र तंत्र बहू होई, मरते न बचावे कोई", कोई भी आपको बचाने वाला नहीं है। संसार में काई भी आपके साथ जाने वाला नहीं है। कुछ भी हमारा नहीं है, इत्यादि प्रकार की भावना जब हमारे अन्दर आ जाती है, तब ही यह आकिंचन्य नाम का धर्म हमारे अन्दर आता है । ऐसा अकेलापन जो भी व्यक्ति महसूस करता है, वो ही व्यक्ति आकिंचन्य धर्म को प्राप्त कर पाता है |
आचार्य पूज्यपाद स्वामी इष्टोपदेश ग्रंथ में ससांरी जीव की दशाओं को बतलाते हैं कि-"दिग्देशेभ्या खगा यत्र, समं वसन्ति नगे नगे, स्व-स्व कार्य वसाद्यन्ति, देश दिक्षु प्रगे प्रगे”, अर्थात् दिशाओं
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