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धारण कर लिया।
मुनि महाराज ने अपनी बात को जारी रखते हुये राजा से कहा कि हे राजन्! ये तो मरी कहानी रही, बताओ क्या तुम मुझे शरण दे सकते हा? मेरे नाथ बन सकत हो? यह सुनकर के राजा मुनि महाराज के सम्मुख नतमस्तक हो जाता है और विनम्र भाव से कहता है कि-हे महाराज! मेरा भी इस संसार में कोई नहीं है। मैं भले ही चक्रवर्ती हूँ, लेकिन इस संसार में मेरा कोई नहीं है।
__ "मम इवम् इति अभि सन्धिः निवृत्तिः आकिंचन्यम्" जिसकी आत्मा में इस प्रकार के परिणाम आ जाते हैं कि मेरा कुछ भी नहीं है इस संसार में, तो समझ लेना उस ही की आत्मा में आकिंचन्य धर्म प्रकट हो जाता है, और ऐसा आकिंचन्य धर्म उस राजा में प्रकट हो गया, उसने जाकर के मुनि धर्म का अंगीकार कर लिया।
राजा न कहा- महाराज! मेरा भी इस संसार में कोई नाथ नहीं है, मैं भी अनाथ हूँ | मैंने मान रखा है कि मेरी प्रजा मेरे लिये सुख देगी, मेरी रानियाँ मेरे लिये सुख देंगी, मेरे पुत्र मरे लिये सुख देंगे, लेकिन फिर भी इतना सब कुछ होते हुये भी हम अनाथ हैं, हमारे दुःख का कोई बाँटने वाला नहीं है, हमारे साथ कोई जाने वाला नहीं
“एगो मे सासदो आदा” मात्र मेरी अकेली आत्मा ही एक शाश्वत है | "दंशण णाण मइयो” मैं मात्र दर्शन और ज्ञान वाला ही हूँ | जो मुनि हाते हैं, जो दिगम्बर होते हैं, वे वन में जाकर के, ऐस ही आकिंचन्य धर्म को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे ही विचार किया करते हैं कि संसार में परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है |
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