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दिशाओं से पक्षी आकर वृक्ष की डालों - डालों पर बैठ जाते हैं और अपना-अपना कार्य करके अपनी-अपनी दिशाओं में उड़ जाते हैं । यही तो संसारी जीव का हाल है कि जीव अकेला आता है, इस संसार रूपी वृक्ष पर बैठ जाता है, और यहाँ पर आकर के अनेक प्रकार के कार्य करता है, कुकर्म करता है और अपने-अपने कर्म के अनुसार गति - गति में चला जाता है, कभी स्वर्ग गति में, कभी मनुष्य गति में, कभी तिर्यंच गति में, कभी नरक गति में । लेकिन वह अकेले ही जाता है, परमाणु मात्र भी उसके साथ नहीं जा सकता है । ऐसी भावनायें जहाँ पर आ जाती हैं, वहाँ आकिंचन्य धर्म प्रकट होता है ।
आप घर में रहकर के कई बार अकेलेपन का चिंतवन करते हैं, लेकिन वह अकेलेपन का चिंतवन कई प्रकार से होता है । एक तो राग के कारण आप अकेलेपन का चिंतवन कर लेते हो । राग और द्वेष से हटकर के जो वीतरागता में जाकर के अकलेपन का चिंतवन किया जाता है, वही आकिंचन्य धर्म को प्रकट कर सकता है ।
जिस समय आपका पुत्र विदश चला जाये, उस समय माँ अपने आप में सोचने लगती है कि अब मेरा कोई नहीं इस संसार में । पति के मर जाने पर, पत्नी सोचती है कि अब मेरा इस संसार में कुछ नहीं है, सब कुछ लुट गया सब कुछ मिट गया। ये सब, राग के कारण तुम ऐसा सोचते हो। यही अकेलेपन का जो तुम मंत्र जप रहे हो, यही वीतरागता की भावना से जपना प्रारम्भ कर दो कि संसार में तुम्हारा कोई नहीं है । राग और द्वेष के कारण से तो तुमने बहुत बार ऐसा सोचा, लेकिन वीतरागता से एक भी बार तुमने आकिंचन्य का चिन्तन नहीं किया ।
एक बहन का जब दूसरी बहन से वियोग होता है, तो वह
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