________________
भी संचय कर रखा है, उसका त्याग कर दो। ऐसा चिंतन करता हुआ, वह कपड़ों का भी त्याग कर देता है, छोड़ देता है सर्व परिग्रह और वन की ओर चला जाता है, कहता है त्याग में ही सुख है, ग्रहण में नहीं ।
सभी जानते हैं, जितना पैसा बढ़ता है, उतनी ही आकुलता सामने आकर खड़ी हो जाती है। 9 हैं तो 10 करने की सोचता है । जितना परिग्रह है, उतना हमारा राग है और परिग्रह के भार के कारण हम ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। आपने पूड़ी को सिकते हुए देखा है। देखो, पहले पूड़ी घी या तेल में नीचे जायेगी। क्यों? इसलिये कि उसके साथ पानी का संयोग है । जैसे ही पानी सूखा, आप उसे डुबाते रहिये घी या तेल में डूबने वाली नहीं है वह पूड़ी, ऊपर ही रहेगी। हम भी पूड़ी जैसे हल्के हैं, किन्तु आकिंचन्य धर्म के अभाव में उसका आनन्द लेने से वंचित हैं ।
एलक श्री वरदत्त सागर जी महाराज ने आकिंचन्य धर्म के "हाँ! अनाथ हूँ" नामक कृति में लिखा है
सम्बन्ध
एक घनघोर जंगल था, उस जंगल में एक राजा ने प्रवेश किया और जंगल में प्रवेश करते ही उसने एक शिला पर मुनिराज को विराजमान देखा । मुनिराज को देखकर के वह राजा मन में विचार करने लगा कि ऐसी अल्प- वय में यहाँ इनके खाने-पीने के दिन थे ये वन में कैसे पहुँच गये । क्या इनका संसार में किसी ने साथ नहीं दिया, क्या ये अनाथ थे? क्या इनका कोई स्वामी नहीं था ?
राजा मुनिराज के पास पहुँचे और बोले- महाराज आपको क्या परेशानी थी, जो आप जंगल में आकर एकांत में बैठ हैं, क्या आपका कोई स्वामी नहीं था? देखो मैं नरनाथ हूँ, अगर तुम्हारा कोई नाथ
568