________________
लोम, हास्य, रति, अरति, शाक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवद और नपुंसक वेद ।
मिथ्यात्व कषाय आदि भी परिग्रह हैं | हास्य, रति, अरति यह भी परिग्रह हैं | किसी को देखकर हँसना भी पाप है, किसी से डरना भी पाप है।
आप माने या न मानें, दुनिया रोने को बुरा मानती है, हँसने को नहीं। लेकिन आचार्य कहते हैं कि जब तक हँसते रहेंगे, तब तक आकिंचन्य धर्म की प्राप्ति नहीं होगी । स्त्रीवेद-पुरुषवेद, मैं स्त्री हूँ या मैं पुरुष हूँ, इस प्रकार की भावना जिसके मन में बनती है, यह भी परिग्रह है। नपुसंक वेद जिसकी नैया डावां डोल है, दोनों और झुक रही है, यह परिग्रह है। हमने तो धन, मकान आदि को ही परिग्रह माना है, इसके आगे दृष्टि ही नहीं गयी। यही कारण है कि हमने कई बार इस बाह्य परिग्रह को छोड़ दिया, पर आकिंचन्य धर्म के धारी नहीं बन पाये।
ये सभी परिग्रह दुःख के कारण हैं। पहले तो हम यह मानत ही नहीं कि परिग्रह पाप है। दुःख का कारण है | हम बिल्कुल ईमानदारी से अपन मन से पूछे कि हम परिग्रह को दुःख का कारण मानते हैं या सुख का । यद्यपि शास्त्र सभा की बात आती है और हमें व्याख्यान के लिये खडा किया जाता है तो हम परिग्रह का पाप बतायेंगे द:ख का कारण बतायेंग | परन्तु हमारी क्रिया यह बता रही है कि हम परिग्रह को सुख का कारण मानकर अपना रहे हैं और अपनाते चले जायेंगे | इसे कहत हैं ढोंग, यह है छल, दूसरों के साथ नहीं, अपने साथ छल है। इस संसार में झगड़े की जड़ कितनी हैं; तीन, जड़, जोरू, और जमीन, इन तीनों में से किसी एक के प्रति राग छोड़ने
565)