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देख ला | तो जब हमारे विकल्पों के अनुसार बाह्य में परिणमन हो ही नहीं सकता, ऐसा निर्णय है तो फिर हमें उस बाह्य का ख्याल ही न रहे, एसा यत्न करें | जो होता हा, हो । उसके हम ज्ञातामात्र रहें । हमारा ता काम जानने भर का है। जो केवल ज्ञाता रहता है, वह आकुलित नहीं होता है और जो किसी बात में पड़ता है, उसको आकुलता होती ही है। जैसे कोई कमेटी हो और उसके तुम कवल दर्शक हो तो तुम देखते ही तो जा रहे हो, कोई आकुलता तुम्हें नहीं रहती है और उस कमेटी के सदस्य हो गए तो कुछ-न-कुछ आकुलता हा जावेगी और कहीं उस कमेटी के अधिकारी बना दिए गए तो समझो आकुलता और बढ़ जायेगी। तो जैस-जैसे अध्यवसान बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे इस जीव क साथ आकुलता बढ़ती जाती है | इस कारण इस बात पर ऋषिजन जोर देते हैं कि हे आत्मन् ! तू अपने आपके स्वभाव को अविनाशी जानकर, केवल आत्मस्वरूप जानकर, बाह्य पदार्थों से उपेक्षा कर, इनमें राग मत कर। इनमें ममत्व बुद्धि न कर।
अपने ज्ञान दर्शन स्वरूप के बिना, अन्य किन्चित मात्र भी मेरा नहीं है, ऐसे अनुभव को आकिंचन्य धर्म कहते हैं । इस आकिंचन्य धर्म को न समझ पाने के कारण ही मैं परिग्रह को अपना मानता रहा और कर्म का बंध ही किया। परिग्रह को महादुःख रूप तथा बंध का कारण जानकर छोड़ना आकिंचन्य धर्म है।
जिसे आकिंचन्यपना होता है, उसे परिग्रह में वांछा नहीं रह जाती है, आत्म ध्यान में लीनता होती है, देहादि में तथा बाह्य बेष में अपनापन नहीं रह जाता है तथा अपना स्वरूप जो रत्नत्रय है, उसी में प्रवृत्ति होती है । आकिंचन्य तो परम वीतरागपना है | जिनका संसार का किनारा आ गया, उनको ही यह आकिंचन्य धर्म होता है |
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