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परिग्रह को छोड़ दने वाले, आकिंचन्य धर्म क धारी कहलात हैं। परिग्रह का छोड़कर जा आकिंचन्य धर्म क धारी बन हैं, वे ही ज्ञानी हैं, उन्होंने समझा है, किचिंत मात्र भी मेरा नहीं है। ज्ञानी आत्मा पर-पदार्थों का संचय नहीं करता। ऐसा ज्ञानी आचार्य कुन्द-कुन्द महाराज ने कोई चुना है, तो वह हैं दिगम्बर मुनिराज, जिनके शरीर पर कपड़े का एक धागा भी नहीं है, उन्होंने कहा- नंगोहिमोक्ख मग्गो, अर्थात् निश्चय से नग्न दिगम्बर मुनि के ही मोक्ष मार्ग है |
जहाँ तृणमात्र भी परिग्रह नहीं अथवा तृणमात्र में भी मूर्छा नहीं है, वहाँ ही आकिंचन्य धर्म है। कहा भी है- “फांस तनिक सी तन में साले चाह लंगोटी की द:ख भाले" | एक लंगोटी का धारण करना भी मोक्षमार्ग को रोक दिया करता है | भैया! बिना मुनि लिंग धारण किये मोक्ष हो ही नहीं सकता। जहाँ तृणमात्र भी परिग्रह नहीं, वहाँ आकिंचन्य धर्म है। ये नग्न दिगम्बर स्वरूप जो मुनि हैं, वे आकिंचन्य धर्म की मूर्ति हैं। यदि सुखी होना है तो सब पर-पदार्थों को छोड़कर, आकिंचन्य धर्म को धारण करो।
किंचित मात्र भी परिग्रह आकिंचन्य धर्म को प्रकट करने में बाधक है | परिग्रह की लालसा और परिग्रह का सम्बन्ध कवल अपने क्लेशों के लिये ही होता है | परिग्रह को 'पाप का बाप' कहा गया है। इस परिग्रह की छीना-झपटी में भाई-भाई का, पुत्र-पिता का और पिता-पुत्र तक का घात करता सुना गया है | चक्रवर्ती भरत ने अपने भाई बाहुबली के ऊपर चक्र चला दिया, किसलिय? पैसे के लिये | क्या वे यह नहीं सोच सकते थे कि आखिर वह भी तो उसी पिता कि सन्तान है जिसका मैं हूँ? यह एक वश में न हुआ तो न सही, षट खण्ड के समस्त मानव तो वश में हो गये | पर वहाँ तो भूत मोह का सवार था इसलिये संतोष कैसे हो सकता था। महाभारत का
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