________________
जहाँ किन्चितमात्र भी परद्रव्य हमारा नहीं है, वहाँ आकिंचन्य धर्म होता है। भले ही हमें गृहस्थी में रहना पड़ रहा हा, पर ऐसा मानें मैं परिवार वाला नहीं हूँ, मैं तो एक चैतन्य स्वरूप सत् पदार्थ हूँ | हालांकि कहना होगा, चलना होगा, खाना होगा, ठीक है, किन्तु ज्ञान है, वैराग्य है, तो वही चलना, खाना, संयम पूर्वक करना पड़ेगा | बातें सब होंगीं, मगर श्रद्धा में तो यह बात बसी हो कि मैं वही हूँ जैसा कि बड़े-बड़े योगी अपन को चैतन्य स्वरूप मानते हैं। ऐसा ही गृहस्थ को भी अपने को मानना चाहिए | भैया! ऐसा नहीं हैं, कि साधुजन तो अपने को चैतन्य स्वरूप मानें और गृहस्थजन अपने को परिवार वाला समझें, दुकान वाला समझें । अरे संतोष का तो उपाय एक ही है चाहे साधु हो, चाहे गृहस्थ हो, दोनों की मुक्ति का एक ही उपाय है।
अपना मूल प्रयाजन और मूल पुरुषार्थ यही है कि यह आत्मा जो अपने उपयोग को चारों ओर भटका रहा है, दौड़ा रहा है वह भटक समाप्त हो जाये।
अच्छा बतलाओ कि धनी होकर क्या करना है? शान्ति प्राप्त करना है? अरे तो उस धन का त्याग करके ही क्यों नहीं शान्ति प्राप्त करते हो? तो इस जीव ने अपने आप में अनेक विकल्प करके न जाने अपने को किस-किस रूप बना डाला है? यह इन विकल्पों से हटता नहीं है, विकल्प किए जा रहा है। इन विकल्पों का काम केवल अशांति उत्पन्न करना है। शान्ति का तो उपाय जैसा शुद्ध सहज केवल अपने आपका यह आत्मा स्वरूप को लिए हुए है, उस स्वरूप के दर्शन करना, उसके उन्मुख होना है।
पुराणों में कितनी जगह चर्चाएं हैं, इन बातों को बताने की कि सोचते हैं कुछ और होता है कुछ और अपने जीवन में ही राज-रोज
(557