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ही पड़ा रहता है, तो तेरे से विपदाएं समाप्त नहीं होंगी।
जो अपने को इन परपदार्थों से भिन्न मानते हैं, वे साधु अपनी इज्जत पोजीशन आदि की कुछ परवाह न करके, आत्मकल्याण की धुन में रहते हैं। एक वेदान्त के कथानक का संग्रह है। उसमें लिखा है कि एक गुरु-शिष्य थे । वे एक पहाड़ी पर रहते थे। एक दिन उन्होंने देखा कि एक नगर का राजा कुछ लोगों के साथ दर्शन के लिए आ रहा है | गुरुजी ने सोचा कि अगर इसका मन मेरी ओर आ गया तो बहुत से लोग यहाँ दर्शन हेतु आवेंगे | बहुत लोगों के आने के कारण हम ध्यान से विचलित हो जावेंगे। गुरुजी ने जब देखा तो अपने शिष्य से कहा कि दखो बेटा राजा आ रहा है। अब हम तुमसे राटियाँ खाने के विषय में लड़ेंगे और जब हम दोनों को रोटियां के विषय में लड़ता हुआ राजा देखेगा, ता वह हमें तुच्छ समझेगा | फिर वह यहाँ न आवेगा | फिर हम अपने ध्यान में लगे रहेंगे | अब राजा आ गया। गुरु ने अपने शिष्य से कहा हमने तो दो ही राटियाँ खाई हैं, आपने कैसे ज्यादा खा ली? शिष्य बाला कि महाराज! कल आपने 10-12 रोटियाँ खा ली थीं, हमने तो केवल दो ही खायीं थीं। इसलिए आज मैं ज्यादा खा गया। राजा सोचन लगा कि अरे ये तो महातुच्छ हैं, रोटियों क विषय में झगड़ते हैं। राजा चला गया। शिष्य ने तीन-चार दिन बाद में गुरुजी से पूछा कि आपने उस दिन रोटियों के विषय में झगड़ा क्यों किया था | गुरु ने कहा कि देखो झगड़ने से राजा का मन बदल गया है, वह हम तुच्छ समझकर नहीं आता है, और उसी के न आने से यहाँ भीड़ भी नहीं लगती। जिसको अपने कल्याण की बात मन में है, वह अपनी बात करता है। वह अपनी इज्जत धूल में मिला करके यदि अपनी रक्षा करता है तो कर ले |
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