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उन बातों पर व्यक्ति लड़ने लगते हैं। पचास प्रतिशत क्रोध जीवन में व्यर्थ की बातों से पैदा होता है। इसलिये कम-से-कम व्यर्थ की बातों स तो बचा और विचार करा कि मैं क्यों क्रोध कर रहा हूँ | __ प्रतिकूल वातावरण हो, कोई अपशब्द भी कह रहा हो, कोई अपमानित भी कर रहा हो, तो भी उस पर क्रोध न करके अपने परिणामों को शान्त बनाये रखना, यह क्षमा भाव है | क्षमा ही इस लोक में परम शरण है। माता के समान रक्षा करने वाली है। जिन धर्म का मूल क्षमा ही है, इसी के आधार से सकल गुण हैं। कर्मों की निर्जरा का कारण है। हजारों उपद्रव दूर करने वाली है। इसलिये धन व जीवन चले जाने पर भी क्षमा को छोड़ना योग्य नहीं है। जो गृहस्थ होकर भी विपरीत परिस्थितियों में अपने क्षमा धर्म को नहीं छोड़ते, वे संत पुरुष मान जाते हैं।
दक्षिण में एक सन्त पुरुष तिरुवल्लवर गृहस्थ में रहकर व्यवसाय करते थे | उसी नगर में एक धनिक व्यापारी पुत्र देवदत्त रहता था। जो कुछ दुष्ट प्रकृति का था। एक दिन किसी व्यक्ति ने देवदत्त के समक्ष तिरुवल्लवर संत के क्षमा गुण की प्रशंसा कर दी। तब देवदत्त अंहकार पूर्वक बोला-मैं उन्हें क्रुद्ध और उत्तेजित करके दिखा दूंगा। एक दिन संत बाजार में हाथ के बुने चादर बेच रहे थे। तब देवदत्त उनके पास पहुँचा और एक चादर उठाकर बोला-कितने की है? संत बाले-दो रुपये की | तब देवदत्त ने चादर के दो टुकड़े करके आधी चादर के दाम पूँछे | संत बाले-एक रुपया। तब देवदत्त ने उसके भी दो टुकड़े करक एक टुकड़े की कीमत पूँछी | तब संत ने कहा-आठ आने | देवदत्त उस चादर के टुकड़े करता रहा और संत उसके दाम बताते रह | परन्तु चेहरे पर जरा भी क्रोध नहीं आया। अन्त में देवदत्त बोला-मैं इनका क्या करूँगा, यह सब बेकार हैं। तब संत
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