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ही सभी लोग सेठ जी की जय-जयकार करने लगे ।
सेठ जी बोले मुझे दो मिनट माइक पर बोलने को मिलेगा। सभी ने कहा हाँ-हाँ दो मिनट क्या आप 10 मिनट तक बोलिये । सेठ जी बोले- मुझे लग रहा था इस धर्म सभा में धन की नहीं, त्याग की महिमा होगी पर मैं देख रहा हूँ, यहाँ भी धन का ही महत्त्व है । मैंने धन क्या दिया लोग मेरी जय-जयकार करने लगे । अब महात्मा जी बाल-सेठ जी आप आराम से बैठिये और सुनिये महिमा धन की नहीं त्याग की होती है । धन तो अभी दो मिनट पहले भी आपके पास बहुत था, पर आप वहाँ जूते-चप्पलों में बैठे थे । जब आपने उस धन का त्याग किया तभी तो आपकी जय-जयकार हुई |
धर्म की इमारत त्याग की नींव पर ही खड़ी होती है । आत्मा को पवित्र करने के लिये त्याग अत्यन्त आवश्यक है । यद्यपि आत्मा अरूपी है, अविनश्वर है किन्तु जड़ पदार्थों की संगति से आत्मा भी वैसी ही लगने लगती है । इसलिये आत्म स्वभाव को पाने के लिये इस अन्तरंग एवं बहिरंग परिग्रह का त्याग करना अनिवार्य है । सभी को अपनी शक्ति अनुसार त्याग एवं दान अवश्य करना चाहिये ।
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