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* उत्तम आकिंचन्य
धर्म का नौवाँ लक्षण है-उत्तम आकिंचन्य | त्याग करते-करते जब यह अहसास हाने लगे यहाँ मेरा कुछ भी नहीं है, तब यह आकिंचन्य धर्म प्रगट होता है। जहाँ कुछ भी मेरा नहीं है, वहाँ है आकिंचन्य | खालीपन, रिक्तता, बिल्कुल अकेलापन यह है आकिंचन्य | विश्व के किसी भी परपदार्थ से किंचित मात्र भी लगाव न रहना आकिंचन्य धर्म है।
मेरा मेरे से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, इसी भाव का नाम आकिंचन्य है । "न किंचन इति आकिंचन्य” किंचित मात्र भी मरा नहीं है | आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य का दश धर्मों का सार एवं चतुर्गति के दुःखों से निकालकर मुक्ति में पहुँचा देने वाला महान धर्म कहा है -
"आकिंचन्य ब्रह्मचर्य, धर्म दश सार हैं।
चहुँगति दुःखते काढ़ि, मुक्ति करतार हैं।" जिस प्रकार क्षमागुण का बाधक क्रोध, मार्दव गुण का बाधक मान, आर्जव गुण का बाधक माया है। उसी प्रकार आकिंचन्य का विरोधी परिग्रह है। परिग्रह को छोड़ देने वाले आकिंचन्य के धारी कहलाते हैं। आकिंचन्य धर्म हमं तृण मात्र भी परिग्रह न रखने की शिक्षा देता है। आकिंचन्य धर्म को धारण करने वाला ऐसा विचार
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