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त्याग किया, साधु बना तभी तो आपन हमें नाव में बिठाया । त्याग से तो गुजारा चल सकता है, पर मात्र ग्रहण से गुजारा नहीं चल सकता। अच्छा खूब पैसों का संचय करो । संचय करके क्या पूरा पड़ेगा, शान्ति होगी, संतोष होगा, समता बनेगी? तो सोच लो, और देखो यहाँ त्याग से बहुत बढ़िया गुजारा होता है । इस परिग्रह को तीर्थकरों ने त्यागा, चक्रवर्तियों ने त्यागा, अनेक महापुरुषों ने त्यागा तो वे सदा के लिये सुखी हो गये ।
यह परिग्रह तो जंजाल का कारण है, अतः जितनी जल्दी हो सके इससे निवृत्त होने का प्रयत्न करना चाहिये ।
त्याग बिना आज तक किसी का उद्धार न हुआ है और न ही होगा । चाहे कोई कभी भी त्याग के मार्ग पर बड़े पर कल्याण होगा त्याग से ही । त्याग में है शान्ति और ग्रहण में है संघर्ष |
जीवन में एक ऐसा निर्णय करें कि जब मरने पर हम कुछ साथ नहीं ले जाते, ये परिजन मित्रजन आदि सब अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं तब फिर उनके पीछे अन्याय से, पाप से भरा हुआ जीवन बिताने से क्या लाभ | हम अपना जीवन न्यायनीति भरा हुआ अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन करते हुये बितायें। चाहे चने खाकर ही जीवन बिताना पड़े, पर न्याय नीति से च्युत न हों | गृहस्थों को अपने धार्मिक कर्तव्यों का पालन करते हुये न्यायनीति से जीवन बिताना यही उनका आदर्श त्याग है ।
इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे हमने अनेकों बार न भोगा हो । देव बन - बनकर, इन्द्र बन - बनकर, चक्रवर्ती व राजा बन-बनकर कौन-सी वस्तु ऐसी रह गई है जो हमने न भोगी हो ? भूल गये हैं आज हम अपना पुराना इतिहास, इसी से ये वस्तुयें ये
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