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चुके हो, अब मेरी जान चाहते हो तो मैं हाजिर हूँ, किन्तु जो पुरस्कार आपने मेरे ऊपर घोषित किया है, वह पुरस्कार मेर इन ग्राम वासियों का दे दिया जाय, ताकि वे अपना दुःख दूर कर सकें । इतना सुनते ही ग्रामीण बुजुर्ग तो रोने ही लगे पर राजा मिथलेश भी सिंहासन पर बैठा न रहा । ऐसा अभूतपूर्व प्रजा प्रेम देखकर वह सिंहासन से नीचे उतरा और कौशल नरेश को गले से लगा लिया तथा गद् गद् कंठ से बोला- हे राजन् ! मुझे क्षमा करा, और अपना राज्य स्वीकार कर अपनी प्रजा का पालन करो। मैं तुम्हारा राज्य तुम्हें वापिस करता हूँ । जिस देश का राजा अपनी प्रजा के कल्याण में अपना कल्याण समझता हो, जो प्रजा के दुःख दर्द में साथ रहता हो, वही सच्चा शासक है। जब राजा को प्रजा - प्रेम व त्याग के कारण अपना खोया हुआ राज्य वापिस मिल गया, तब यदि हम विषय वासनाओं, कामनाओं एवं आकांक्षाओं का त्याग कर सकें तो अवश्य ही अपनी आत्मा का कल्याण कर सकते हैं ।
यह इस दुनिया का नियम है कि हल्की वस्तु ऊपर उठती है । दूध पानी छोड़ता है तो घी बनकर ऊपर तैरता है । इसी प्रकार जो परिग्रह छोड़ते हैं, वे ऊपर उठते हैं और जो जोड़ते हैं, वे डूबते हैं । अतः सुख जोड़ने में नहीं, त्याग में है ।
वट वृक्ष का बीज छोटा होता है, पर उसे उपजाऊ भूमि में डाल दिया जावे तो वह विशाल वृक्ष का रूप धारण कर लेता है । इसी प्रकार अल्पमात्रा में दिया गया दान भी महान फल को देने वाला होता है ।
महान् कहानीकार मुंशी प्रेमचंद जी ने मुक्तिधाम नाम की कहानी में लिखा है- एक बार रहमान नाम का किसान गरीबी के कारण
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