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कहा रच्यो पर पद में, न तरो पद यहै क्यों दुःखः सहै।
अब दौल हाऊ सुखी स्व-पद रचि, दावा मत चूको यहै।। राग, तपन पैदा करता है। विषय-कषाय हम जलाने वाले हैं। यह हमारा पद नहीं है, पर-पद है। अपने पद में आओ | आज तक हम भोगों में सुख मानते रह | त्याग का लक्ष्य रहा नहीं। इसलिये अब आत्मा का अहित करने वाले इन विषय-कषायों, राग-द्वेष, माह से दूर रहें और शक्ति अनुसार इनका-त्याग करें।
किसी नगर में एक धनी सेठ रहता था। वह ऊपर से तो मीठी और चिकनी-चुपड़ी बातें करता लेकिन उसके मन में कपट रहता था | छल-कपट से उसने लाखों का धन इकट्ठा किया था | पर जब कोई भिखारी उसके द्वार पर आकर रोटी, कपड़े की याचना करता तो सेठ उसे कुत्ते की तरह दुतकार कर भगा देता | वह धन को ही अपना सर्वस्य समझने लगा। चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाये | यह कहावत सेठ पर पूरी तरह घटित होती थी। लोग उसे कन्जूस के नाम से पुकारने लगे | नगरवासी कभी-कभी उससे कह दिया करते थे कि, सेठ जी! क्या करोगे इतना धन जोड़कर किसी शुभ कार्य में भी कुछ लगा दिया करो | दान दोगे तो उभय लाक में सुख पाओगे |
पर कन्जूस सेठ उनकी बातों को हँसी में टाल देता और कहता-अरे! तुम तो सब मूर्ख हा, पैसे की इज्जत तुम सब क्या जानो | मैं तो पैसे को अपना सब कुछ समझता हूँ | धन से मृत्यु को भी जीता जा सकता है। देखते नहीं सारा नगर मेरे सामने सिर पकड़ता है। बड़े-बड़े आदमी मुझस ही मिलते हैं, लोग टकटकी लगाकर देखते हैं, द्वार पर भीड़ बनी रहती है | यदि मैं इस धन को दान में दे दूँ तो मेरी खुशामद कौन करेगा? मेरी कोठी है, बगीच हैं |
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