________________
एक अन्य मत का साधु बड़ा संतोषी था । घर-घर जाता एक - एक रोटी माँगता और आठ-दस घरों से अपना पेट भर लेता । कभी थोड़ा पानी चुल्लू में लेकर पी लेता और दिन भर भजन करता, प्रभु की भक्ति करता, गुणगान गाता । बड़ी शान्ति में उसकी जिन्दगी बीत रही थी । एक भक्त कहने लगा कि महाराज, अगर खाते-खाते प्यास लग जाये तो आप क्या करेंगे इसलिए एक सस्ता कटोरा ला देता हूँ । साधु ने विचारा कि चलो एक कटोरे से क्या बिगड़ेगा। ला दने दो । इसका भी चित्त प्रसन्न हो जायेगा। कटोरा आ गया। एक दिन शिवालय से निकल कर संध्या ध्यान के लिये जंगल की ओर जाते समय कटोरा रह गया। जब साधु जी ध्यान कर रहे थे तो उन्हें कटोर की याद आई, यदि कोई कटोरा ले गया तो? साधु को झुंझलाहट - सी उठी अच्छा लिया कटोरा, सब कुछ खो बैठे। उठे और बोले- पहले कटोरे का इलाज कर आऊँ, फिर करूँगा ध्यान । आये द्वार पर कटोरा पड़ा था । पत्थर लेकर तोड़ा मरोड़ा और फेंक दिया। इधर से भक्त भी आ निकला | क्या बिगाड़ा है इस बेचारे ने पूछने लगा जो इस प्रकार इसके पीछे पड़े हो । बिगाड़ा ही नहीं सर्वस्व लूट लिया है, साधु बोले । तू क्या जाने बेटा क्या लिया है इसने । साधु संतोष की सांस लेकर चला गया पुनः जंगल की ओर । त्याग से ग्रहण में आकर पता चला साधु को कि कितना दुःख है ग्रहण में । इस प्रकार ग्रहण से त्याग में आकर ही पता चलता है कि त्याग में कितना सुख है । इसलिए संतोष धारण करो । संयम से त्याग से हमारे जीवन में कितना संतोष प्राप्त होता है इसे त्याग करने के बाद ही महसूस किया जा सकता है।
पं. दौलतराम जी ने लिखा है
यह राग आग दैह सदा, तातें समामृत सेइये । चिर भजै विषय कषाय, अब तो त्याग निजपद बेइये ||
509