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इसलिये ऐसा हुआ | त्याग पैसे से नहीं हाता, त्याग भावना से हाता है।
एक बार धर्मराज युधिष्ठिर हजामत बनवा रहे थे। नाई जब हजामत बना चुका तो धर्मराज ने उस सोने का प्याला जिसमें हजामत का पानी भरा हुआ था, दान में द दिया किन्तु दिया बायें हाथ से | वह बोला-महाराज दान तो दायें हाथ से दिया जाता है। युधिष्ठिर महाराज बाले-माँगलिक कार्य में दर नहीं करना चाहिये, हो सकता है भावना में परिवर्तन आ जाये, मन के विचार बदल जायें | अतः जब भी संयम के, त्याग के, दान के भाव हों तुरन्त कर लना चाहिये । इसमें ज्यादा नहीं सोचना चाहिये ।
ये बाह्य परिग्रह तो दुःख के ही कारण हैं, इनका त्याग करने में ही आत्मा की भलाई है | सत्य बात को मान लो, अगर सत्य बात को नहीं मानते तो दुःखी कौन होगा? कोई दूसरा दुःखी होने नहीं आयेगा। जैस कोई बच्चा रूठ गया, बहुत रोता है, हठ पकड़ गया है तो उस बच्चे को बहुत-बहुत लोग समझाते हैं-बटा हठ न करो, रोओ मत, यहाँ बैठ जाओ, कुछ खाना ही नहीं है ता वह एक कौने में बैठकर रोता रहता है । अब भला बतलाओ जब उसने ऐसी हठ पकड़ ली, तो फिर दुःखी कौन होगा? उसे ही तो दुःखी हाना पड़ेगा। ता, भाई! यहाँ व्यर्थ की हठ का छोड़ो। पर का आग्रह छोड़कर, उनका त्याग कर अपने आपके स्वरूप की ओर आयें, यहाँ का आनन्द लूटें | बाह्य पदार्थों को ऐसा जान लें कि आखिर ये 10-20 वर्ष बाद में मेरे से छूट ही जायेंगे, तो अभी से उन्हें छूटा हुआ मान लें और उत्तम त्याग धर्म को जीवन में धारण करें। त्याग से ग्रहण में आकर ही पता चलता है कि ग्रहण में कितना दुःख है।
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