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3. शास्त्रदान (ज्ञानदान) हमारे यहाँ शास्त्रदान की परिपाटी अत्यंत प्राचीन है । वस्तुतः इसी परिपाटी के कारण हमारे शास्त्र सुरक्षित हैं । गृहस्थों द्वारा दशलक्षण व्रत उपवासादि के पश्चात् हाथ से लिखकर दस शास्त्र मंदिरों में रखने की परम्परा रही है | ज्ञानदान से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है । ज्ञानदान के प्रभाव से अज्ञान - रूपीअंधकार दूर होता है और जिन धर्म का प्रचार-प्रसार होता है ।
ज्ञानदान की महिमा अचिन्त्य है । किसी जीव का ज्ञान दिया और उसे ऐसा आत्मा - ज्ञान हो जाये कि उसके सारे दुःख समाप्त हो जायें, आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेषादि विकारी भाव समाप्त हो जायें, अनादिकाल से बंधे कर्मों से मुक्ति हो जाये, तो बताइये इस ज्ञानदान की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है। ज्ञान के समान संसार में सुख को देने वाला अन्य कुछ भी नहीं है। सभी को जिनधर्म की महिमा के प्रचार-प्रसार में अपने धन का सदुपयोग अवश्य करना चाहिये ।
गाविन्द नामक एक ग्वाले ने वृक्ष की कोटर से निकालकर एक प्राचीन शास्त्र की पूजा की थी तथा भक्ति पूर्वक वह शास्त्र पद्मनन्दी मुनिराज को दे दिया था। जिससे बहुत से मुनिराजों ने स्वाध्याय किया था । वह गोविन्द मरकर उसी ग्राम में ग्राम प्रमुख का पुत्र हुआ। एक बार उन्हीं पद्मनन्दी मुनिराज को देखकर उसे जातिस्मरण हो गया और वह संयम को धारण कर शास्त्रों का पारगामी बहुत बड़ा मुनि बना । यह उसके पूर्व भव दिये शास्त्रदान का फल था ।
4. अभयदान
छह काय के जीवों की रक्षा करना, किसी भी प्राणी को मन, वचन, काय से पीड़ा नहीं पहुँचाना, अभयदान है । भयभीत धार्मिक जनों तथा अन्यों को भय से मुक्त करना अभयदान कहलाता है | पंचतंत्र में लिखा है कि
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