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आहारदान के समान कोई दान नहीं । भगवान ऋषभदेव को बारह महीनों के बाद राजा श्रेयांस ने आहारदान दिया था जिसकी निर्मल यशचंद्रिका इस धरातल पर आज भी फैल रही है । भरत चक्रवर्ती ने भी राजा श्रेयांस की पूजा की थी । राजा श्रीषेण बड़े धार्मिक पुरुष थे। उन्होंने आदित्यगति, अरंजय दो मुनियों को बड़ी श्रद्धा-भक्ति से आहारदान दिया, तो देवों ने प्रसन्न होकर अपार रत्नवर्षा उनके घर के आंगन में की, और श्रीषेण राज षोडश कारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ हुये । वह कामदेव थे और चक्रवर्ती थे । आहारदान की ऐसी महिमा है । अतः प्रत्येक श्रावक को योग्य पात्र को आहारदान करके अपना कल्याण करना चाहिए ।
2. औषधिदान रोग नाश करने वाली प्रासुक औषधि देना औषधि दान है | अर्द्धचक्री नारायण कृष्ण की राजधानी द्वारिका में एक मुनि पधारे। उन्हें कोई भीषण रोग हो गया था । कृष्ण को उनका रोग देखकर बड़ा दुःख हुआ । इस चिंता मे पड़ गये कि रोग कैसे दूर किया जाय । आखिर एक वैद्य से बहुत बड़ा लड्डू बनवाकर सारे नगर में बाँट दिया जिससे कि मुनिराज चाहे नगर के किसी भी घर आहार करें, वहाँ लड्डू का आहार ही दिया जाये। सारे नगर में यह सूचना कर दी। अब मुनिराज जिस घर जावें, उसी घर लड्डू मिले । फल यह हुआ कि उनका रोग आठ दिनों में ही मिट गया । जैसे-जैसे रोग दूर होता था वैसे ही कृष्ण का हर्ष बढ़ता था । वे निरंतर षोड़श कारण भावना भाते थे । फलतः उस औषधिदान का निमित्त तीर्थंकर प्रकृति का कारण हुआ, तो औषधिदान का यह महत्त्व है | अतः योग्य पात्र को इस उत्तम औषधिदान को देकर, पुण्यफल का संचय करना चाहिए ।
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