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न गोप्रदानं न मही प्रदानं न चान्नदानं हितया प्रधानम् । यथा वदंतीह बुधाः प्रधानं सर्व प्रदानेष्वभय प्रदानम् ।।
अर्थात् सभी प्रकार के दानों में अभयदान को विद्वान लोग जितना श्रेष्ठ बतलाते हैं, उतना श्रेष्ठ न तो गोदान है, न भूदान और न अन्नदान ही है। सुमेरु पर्वत के बराबर सुवर्णदान देने से, जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, वह अभयदान के प्रभाव से हो जाती है । अभयदान देने से परभव सम्बन्धी समस्त दुःख दूर हो जाते हैं ।
अभयदान का फल
कोई विद्याधर हर कर ले
था,
अनंगसरा नाम की एक कन्या थी । उसे गया था । वह विद्याधर मार्ग में लिए जा रहा तो कुछ लोगों ने उसे देखा और पीछा किया। तो वह उस एक भयानक जंगल छोड़ गया । उस जंगल में उस कन्या ने 3000 वर्ष बिताये | बाद में जब उसके पिता को पता चला तो देखा कि वह अजगर के मुख में थी । शरीर का आधा अंग वह अजगर निगल गया था । जिस समय उसके पिता ने उस अजगर को मारकर बच्ची को बचाने का प्रयास किया, तो कन्या ने अजगर को अभयदान दिया । बोली इस अजगर को मत मारो । आखिर उस अभयदान का फल यह हुआ कि वह विशल्या बनी। उसका इतना माहात्म्य था कि, उसके स्नान किये जल को स्पर्श करने से सब रोग दूर हो जाते थे। तो यह था उसके अभयदान का फल | प्रत्येक आत्मकल्याणार्थी को अभयदान देकर, अपने जीवन को कल्याण पथ पर लगाना चाहिये ।
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घट गाँव नाम के शहर में एक देविल नाम का कुंभार और एक धर्मिल नाम का नाई रहता था। दोनों ने मिलकर एक धर्मशाला बनवाई | देविल ने मुनिराज को ठहरा दिया। तब धर्मिल ने उन्हें निकालकर एक सन्यासी को ठहरा दिया। देविल का ऐसा मालूम
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