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रहा हूँ। रास्ते में उसने पूछा- महाराज ! आपको हमारी झोपड़ी कैसी लगी? महाराज ने कहा- तुमने घर-परिवार छोड़ दिया, किन्तु एक झोपड़ी बना ली, आखिर क्या किया? मोह का परिवर्तन ही किया और कुछ नहीं । उस सन्यासी को लगा महाराज सही कह रहे हैं । वह वापिस आया और झोपड़ी में आग लगा दी । झोपड़ी को जलाकर वह महाराज के पास पहुँचा और बोला- महाराज ! न रहेगा बाँस, बजेगी बाँसुरी | इसलिये मैंने झोपड़ी जला दी । पर महाराज यह तो बतला दो कि वह झोपड़ी कैसी थी ?
महाराज ने कहा- हे सन्यासी ! बाहर की झोपड़ी तो जल गई, किन्तु अंदर की नहीं । अंतरंग में अभी भी झोपड़ी बनी हुई है । अर्थात् उसके प्रति मोह बना हुआ है। बाहरी त्याग के साथ अंतरंग में आसक्ति नहीं होनी चाहिये । अंतरंग मं विरक्ति नहीं और बाहर से घर छोड़ दिया, फिर भी अंदर झोपड़ी बनी रही तो उससे कोई लाभ नहीं । त्याग करने के बाद मैंने त्यागा, इस विकल्प का भी त्याग कर देना चाहिये । त्याग की महिमा बताते हुये आचार्यों ने लिखा हैत्यागो हि परमो धर्मः त्याग एव परं तपः । त्यागाद् इह यश लाभः पराभ्युदयो महान || अर्थात् त्याग ही परम धर्म है। त्याग ही परम तप है। त्याग से ही इस जगत में यश का लाभ होता है और परलोक में महान् अभ्युदय की प्राप्ति होती है। जिसने भी त्याग के मार्ग को अपनाया वे नर से नारायण बन गये, उनका जीवन धन्य हो गया ।
जो संसारियों के कहे अनुसार चलते हैं वे संसार में ही रहते हैं । यह संसार है ही ऐसा। एक व्यक्ति घोड़े पर बैठा जा रहा था और उसकी पत्नी पैदल नीचे चल रही थी । पति बैठा था घोड़े पर । एक
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