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त्याग बराबर तप नहीं, जो होवे निरदोष ।
भविजन कीजे त्याग अब, मिल बड़ा संतोष ।। त्याग का अर्थ होता है, वस्तु के त्याग के साथ उसके प्रति ममत्व भाव का भी त्याग करना । त्याग करने के बाद त्यागी हुई वस्तु का पुनः ध्यान नहीं आना चाहिये | त्याग दिया, त्याग दिया अब उससे कनेक्टेिड नहीं रहना चाहिये । व्यक्ति किसी पदार्थ से दो प्रकार से जुड़ता है, एक तो उसमें आसक्त होकर और दूसरा उन पदार्थों को छाड़ दिया फिर भी मैंने छोड़ा है' इस बात का अभिमान करके | एक तो पकड़ के जुड़ा है और एक छोड़ के जुड़ा है | तो इस जुड़ने को छोड़ने का नाम त्याग है। जिसका त्याग कर दिया, फिर उसका विकल्प भी छूट जाना चाहिये | त्याग करने के बाद उस त्याग का गरुर भी अंदर नहीं रखना चाहिये ।
एक मुनिराज अपने प्रवचन में बार-बार कह रहे थे, मैंने लाखों की सम्पत्ति पर लात मार दी। दूसरे मुनिराज पास में बैठे थे। जब उन्होंने यही बात उनके मुख से बार-बार सुनी, तो वे बोले-महाराज जी लगता है अभी आपकी लात अच्छे से नहीं लगी, नहीं तो छाड़ने के बाद उसका ख्याल भी नहीं आना चाहिये | त्याग करने के बाद भी यदि अंदर से राग बना रहा, तो त्याग से काई लाभ नहीं।
एक बार आचार्य शान्ति सागर जी महाराज जंगल के रास्ते से गुजर रहे थे। एक सन्यासी महाराज से आग्रह करता है, महाराज! मेरी झोपड़ी में आपके चरण पड़ जायें, मेरी झोपड़ी पवित्र हो जायेगी, आप मेरी झोपड़ी पर अवश्य चलें | महाराज उसकी झोपड़ी में ठहर गये | थोड़ी देर पश्चात महाराज ने बिहार किया, तो सन्यासी भी साथ हो गया | सन्यासी बड़ा प्रसन्न था कि महाराज क साथ चल
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