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________________ परिग्रह समान भार अन्य नहीं है। जितने भी दुःख, दुर्ध्यान, क्लेश, बैर, शाक, भय, अपमान हैं, वे सभी परिग्रह के इच्छुक के होते हैं | जैस-जैस परिग्रह से परिणाम भिन्न होने लगत हैं, परिग्रह में आसक्ति कम होने लगती है, वैसे-वैसे ही दुःख कम होने लगत हैं। समस्त दुःख तथा समस्त पापों की उत्पत्ति का स्थान यह परिग्रह ही है | जिन्होंने इस परिग्रह को त्याग दिया, व त्यागी पुरुष ही वास्तव में सुखी हैं और भविष्य में अनन्त सुख के धारी बनेंगे | ___ एक नगर का राजा मर गया। मंत्रियों ने सोचा कि अब किसे राजा बनाया जाये? सभी ने तय कर लिया कि सुबह के समय अपना राज-फाटक खुलगा, तो जो व्यक्ति फाटक पर बैठा हुआ मिलेगा उसको ही राजा बनायेंगे | फाटक खुला, तो वहाँ मिले वह साधु महाराज | वे लाग उस साधु को हाथ पकड़ कर ले गये, बोले-तुम्हें राजा बनना पड़ेगा। ........ अरे! नहीं, नहीं हम राजा नहीं बनंगे | .... ..... तुम्हें राजा बनना ही पड़ेगा | उतारो यह लंगोटी और य राजभूषण पहनो | साधु कहता है-अच्छा, अगर हमें राजा बनाते हो तो हम राजा बन जायेंगे पर हमसे काई बात न पूछना, सब काम-काज आज आप लोग ही चलाना। ............ 'हाँ-हाँ, यह तो मंत्रियों का काम है, आपस पूछने की क्या जरूरत है? हम लोग सब काम चला लेंग।' उसन अपनी लंगोटी एक छाट-से संदूक में रख दी और राजवस्त्र पहिन लिये | दा चार वर्ष गुजर गये | एक बार शत्रु न चढ़ाई कर दी। मंत्रियों ने पूछा-राजन! अब क्या करना चाहिये? शत्रु एक दम चढ़ आये हैं। अब हम लोग क्या करें? साधु बोला-अच्छा हमारी पेटी उठा दो | सब राजभूषण उतारकर लंगोटी पहिन ली और कहा 'हमें तो यह करना चाहिये और तुम्हें जो करना हो करा ।' ऐसा कह कर चल दिया। साधु जी को राज्य के प्रति कोई ममत्व नहीं था। (484)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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